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"रामधारी सिंह "दिनकर" / परिचय" के अवतरणों में अंतर

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'''रामधारी सिंह दिनकर''' (1908-1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक थे। राष्ट्र कवि दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रांत के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट कवि दिनकर की जन्मस्थली है। इन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता।
 
'''रामधारी सिंह दिनकर''' (1908-1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक थे। राष्ट्र कवि दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रांत के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट कवि दिनकर की जन्मस्थली है। इन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता।
  

17:37, 12 फ़रवरी 2009 का अवतरण

रामधारी सिंह दिनकर (1908-1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक थे। राष्ट्र कवि दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रांत के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट कवि दिनकर की जन्मस्थली है। इन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता।

रामधारीसिंह दिनकर को राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत, क्रांतिपूर्ण संघर्ष की प्रेरणा देने वाली ओजस्वी कविताओं के कारण असीम लोकप्रियता मिली। उन्हें 'राष्ट्रकवि' नाम से विभूषित किया गया।

भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात दिनकरजी मुख्य रूप से गद्य सृजन की ओर उन्मुख हो गए। उन्होंने स्वयं कहा भी है- 'सरस्वती की जवानी कविता है और उसका बुढ़ापा दर्शन है।'

दिनकरजी के उत्तरवर्ती जीवन में यही दार्शनिकता तथा गूढ़ वैचारिकता गद्य में प्रकट हुई। दिनकर के साहित्यिक जीवन की विशेषता यह थी कि शासकीय सेवा में रहकर राजनीति से संपृक्त रहते हुए भी वे निरंतर स्वच्छंद रूप से साहित्य सृजन करते रहे। उनकी साहित्य चेतना राजनीति से उसी प्रकार निर्लिप्त रही, जिस प्रकार कमल जल में रहकर भी जल से निर्लिप्त रहता है।

अपितु राजनीति में संपृक्त रहने के कारण उनके गद्य में अनेक ऐसे तथ्य पूर्ण निर्भीकता से प्रकट हुए हैं, जिनके माध्यम से तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य तथा राजनेताओं की प्रवृत्तियों का स्पष्ट परिचय प्राप्त हो जाता है। 'संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ ' उनकी ऐसी ही पुस्तक है, जिसमें समकालीन साहित्यकारों के साथ-साथ राजनेताओं के संस्मरण भी संकलित हैं।

'अर्धनारीश्वर', 'रेती के फूल', 'वेणुवन', 'वटपीपल', 'आधुनिक बोध', 'धर्म नैतिकता और विज्ञान' आदि दिनकरजी के ऐसे निबंध संग्रह हैं, जिनमें उन्होंने आधुनिकता और परंपरा, धर्म और विज्ञान, नैतिकता, राष्ट्रीयता-अंतरराष्ट्रीयता आदि विषयों के साथ काम, प्रेम, ईर्ष्या जैसी मनोवृत्तियों पर बड़ी गहराई से चिंतन किया है।

अपनी प्रारंभिक कविताओं में क्रांति का उद्घोष करके युवकों में राष्ट्रीयता व देशप्रेम की भावनाओं का ज्वार उठाने वाले दिनकर आगे चलकर राष्ट्रीयता का विसर्जन कर अंतरराष्ट्रीयता की भावना के विकास पर बल देते हैं।

धर्म और विज्ञान के विषय में दिनकर का स्पष्ट मत है कि 'जीवन में विज्ञान का स्थान तो रहेगा परंतु वह अभिनव रूप ग्रहण करके आधिभौतिकता से ऊपर उठकर धर्म के क्षेत्र में जीवन की सूक्ष्मताओं में प्रवेश करेगा।'

आधुनिकता को दिनकर कोई मूल्य न मानकर एक ऐसी शाश्वत प्रक्रिया मानते हैं, जो अंधविश्वास से बाहर निकलकर नैतिकता में उदारता बरतने के लिए, बुद्धिवादी बनने को प्रेरित करती है। दिनकरजी ने आलोचनात्मक गद्य का भी सृजन किया है। 'मिट्टी की ओर,' 'काव्य की भूमिका' 'पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण' उनके आलोचनात्मक ग्रंथ हैं।

इनमें उन्होंने समकालीन कवियों व काव्य प्रवृत्तियों के विषय में अपने स्वतंत्र विचार प्रकट किए हैं। इनसे हिन्दी आलोचना को नवीन दिशा व दृष्टि मिली है। रीतिकालीन काव्य के विषय में दिनकर का मत है 'चित्रकला की कसौटी रीतिकाल के साथ न्याय करने की सबसे अनुकूल कसौटी होगी।'

'शुद्ध कविता की खोज' दिनकरजी का बहुचर्चित ग्रंथ है। इसमें उन्होंने काव्य के प्रयोजन के आधार पर कविता के शुद्धतावादी आंदोलन का शोधपूर्ण इतिहास प्रस्तुत किया है।

'चेतना की शिखा' दिनकरजी की एक ऐसी पुस्तक है, जिसे पढ़कर सहज ही भारत के महान योगी महर्षि अरविंद के व्यक्तित्व तथा दार्शनिक चिंतन के विभिन्ना पहलुओं का पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाता है।

राष्ट्रभाषा की समस्या पर राष्ट्रकवि दिनकरजी का हृदय बहुत चिंतित था। उन्होंने इस विषय पर दो पुस्तकें लिखी हैं। 'राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता' तथा 'राष्ट्रभाषा आंदोलन और गाँधीजी।' दिनकर का कथन है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा इसलिए माना गया कि केवल वही भारत की सांस्कृतिक एकता व राजनीतिक अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने में समर्थ है।

युगदृष्टा साहित्यकार दिनकर ने अपने समय की कठिनाइयों को बड़ी पैनी दृष्टि से देखा व पहचाना। युवा आक्रोश तथा अनुशासनहीनता के लिए उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा-'अनुशासनहीनता वह रोग नहीं, जो कल पैदा हुआ और परसों खत्म हो जाएगा। जब तक शासन के कर्णधार नहीं सुधरेंगे, जब तक ईमानदार कर्मचारी धक्के खाते रहेंगे, बेईमानों को तरक्की मिलती रहेगी, तब तक छात्रों की अनुशासनहीनता भी कायम रहेगी।'

'संस्कृति के चार अध्याय' एक ऐसा विशद, गंभीर खोजपूर्ण ग्रंथ है, जो दिनकरजी को महान दार्शनिक गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करता है। अध्यात्म, प्रेम, धर्म, अहिंसा, दया, सहअस्तित्व आदि भारतीय संस्कृति के विशिष्ट गुण हैं।

दिनकरजी स्पष्ट घोषणा करते हैं- 'आज सारा विश्व जिस संकट से गुजर रहा है, उसका उत्तर बुद्धिवाद नहीं, अपितु धर्म और अध्यात्म है। धर्म सभ्यता का सबसे बड़ा मित्र है। धर्म ही कोमलता है, धर्म दया है, धर्म विश्वबंधुत्व है और शांति है।'

सच ही, अपने काव्य में सागर की सी गर्जना करने वाले, 'उर्वशी' के माध्यम से सुकोमल प्रेम की रसभरी सतरंगी फुहारों में स्नान कराने वाले और गद्य के माध्यम से चिंतन के नए आयाम रचकर काल की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाले दिनकर का साहित्य आधुनिक हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि करने वाला अनुपम आबदार मोती है, जिसे अब भी सच्चे जौहरी की तलाश है।