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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक:''' शासन की बन्दूक <br>
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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक:''' बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[नागार्जुन]]
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला']]
 
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खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
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बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
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पूछेगा सारा गाँव,  बंधु!
  
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
+
यह घाट वही जिस पर हँसकर,
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक
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वह कभी नहाती थी धँसकर,
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आँखें रह जाती थीं फँसकर,
 +
काँपते थे दोनों पाँव बंधु!
  
बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
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वह हँसी बहुत-कुछ कहती थी,  
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
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फिर भी अपने में रहती थी,  
 
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सबकी सुनती थी, सहती थी,
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
+
देती थी सबको दाँव, बंधु!
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक
+
 
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जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
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बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
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01:41, 4 फ़रवरी 2009 का अवतरण

 सप्ताह की कविता

  शीर्षक: बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
  रचनाकार: सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव,  बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
काँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत-कुछ कहती थी, 
फिर भी अपने में रहती थी, 
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबको दाँव, बंधु!