भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बर्फ़ / चार दृष्य / ओमप्रकाश सारस्वत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत |संग्रह=एक टुकड़ा धूप / ओमप्रक...)
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत
 
|रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत
|संग्रह=एक टुकड़ा धूप / ओमप्रकाश् सारस्वत
+
|संग्रह=एक टुकड़ा धूप / ओमप्रकाश सारस्वत
 
}}
 
}}
  

01:36, 6 फ़रवरी 2009 का अवतरण

एक

किसी दुर्दिन में
रूईं के फाहों सी
लगातार गिरती बर्फ़
यूँ लगती है
जैसे
अनन्त खरगोश-शावकों को
मार-मार कर
अविरल गिराता जा रहा हो
कोई आकाश मैं बैठा हुआ
पंचतंत्र का सिंह

दो

बड़े वर के सफेद लट्ठे के थान-सी
अछोर फैली यह उजली बर्फ़
कुछ स्थानों पर से
उड़ती हुई यूँ लग रही है
जैसे किसी थान को
बीच-बीच से काट कर
बेच रहा हो कोई
न समझ बजाज
  
तीन

किसी की खुशी में
कोई विरला ही
झूम उठता है
मस्ती से
देखो हवाएं किस तरह
इस शरदोत्सव में धूप की तरह पीकर
धुत्त
नाच रही हैं
देवदारुओं से
निपट-लिपट कर

चार

आगामी धूप के पर्व में
शामिल होने के लिए
सगर्व
सिर पर अपनी-अपनी
पगड़ी बाँध
सहर्ष
ग्रामीणों की तरह
किस तरह इधर-उधर
सुखा रहे हैं ये कैल,देवदारु
अपने-अपने
बर्फ़ के तहमद