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ग़ज़ल शेरों से बनती है। हर शेर में दो पंक्तियाँ होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की खा़स बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता होता है और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले,पिछले अथवा अन्य शेरों से हो ,यह ज़रुरी नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना गलत न होगा कि | ग़ज़ल शेरों से बनती है। हर शेर में दो पंक्तियाँ होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की खा़स बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता होता है और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले,पिछले अथवा अन्य शेरों से हो ,यह ज़रुरी नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना गलत न होगा कि | ||
उसमें २५ स्वतंत्र कवितायें हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे शेर को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं। | उसमें २५ स्वतंत्र कवितायें हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे शेर को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं। |
22:42, 3 फ़रवरी 2010 का अवतरण
ग़ज़ल शेरों से बनती है। हर शेर में दो पंक्तियाँ होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की खा़स बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता होता है और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले,पिछले अथवा अन्य शेरों से हो ,यह ज़रुरी नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना गलत न होगा कि उसमें २५ स्वतंत्र कवितायें हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे शेर को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं।
मत्ला ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मत्ला’ कहते हैं। इसके दोनो मिसरों में यानि पंक्तियों में ‘काफिया’ होता है। अगर ग़ज़ल के दूसरे शेर की दोनों पंक्तियों में का़फ़िया तो उसे ‘हुस्ने मत्ला’ या ‘मत्ला-ए-सानी’ कहा जाता है।
क़ाफिया वह शब्द जो मत्ले की दोनों पंक्तियों में और हर शेर की दूसरी पंक्ति में रदीफ़ के पहले आये उसे ‘क़ाफ़िया’ कहते हैं। क़ाफ़िया बदले हुये रूप में आ सकता है। लेकिन यह ज़रूरी है कि उसका उच्चारण समान हो, जैसे बर, गर, तर, मर, डर, अथवा मकाँ,जहाँ,समाँ इत्यादि।
रदीफ़ प्रत्येक शेर में ‘का़फ़िये’ के बाद जो शब्द आता है उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ़ एक होती है। ऐसी ग़ज़लों को ‘ग़ैर-मुरद्दफ़-ग़ज़ल’ कहा जाता है।
मक़्ता
ग़ज़ल के आख़री शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक़्ता’ कहते हैं। अगर नाम न हो तो उसे केवल ग़ज़ल का ‘आखरी शेर’ ही कहा जाता है। शायर के उपनाम को ‘तख़ल्लुस’ कहते हैं। निम्नलिखित ग़ज़ल के माध्यम से अभी तक ग़ज़ल के बारे में लिखी गयी बातें आसान हो जायेंगी।
कोई उम्मीद बर नहीं आती। कोई सूरत नज़र नहीं आती।।१ मौत का एक दिन मुअय्यन है। नींद क्यों रात भर नहीं आती।।२ आगे आती थी हाले दिल पे हंसी। अब किसी बात पर नहीं आती।।३ हम वहां हैं जहां से हमको भी। कुछ हमारी खबर नहीं आती।।४ काबा किस मुंह से जाओगे ‘गा़लिब’। शर्म तुमको मगर नहीं आती।।५
इस ग़ज़ल का ‘क़ाफ़िया’ बर,नज़र,भर,ख़बर,मगर है। इस ग़ज़ल की ‘रदीफ़”नहीं आती’ है। यह हर शेर की दूसरी पंक्ति के आख़िर में आयी है। ग़ज़ल के लिये यह अनिवार्य है। इस ग़ज़ल के प्रथम शेर को ‘मत्ला’ कहेंगे क्योंकि इसकी दोनों पंक्तियों में ‘रदीफ़’ और ‘क़ाफ़िया’ है। सब से आख़री शेर ग़ज़ल का ‘मक़्ता’ कहलायेगा क्योंकि इसमें ‘तख़ल्लुस’ है।
बह्र,वज़्न या मीटर(meter)
शेर की पंक्तियों की लंबाई के अनुसार ग़ज़ल की बह्र नापी जाती है। इसे वज़्न या मीटर भी कहते हैं। हर ग़ज़ल उन्नीस प्रचलित प्रचलित बहरों में से किसी एक पर आधारित होती है। बोलचाल की भाषा में सर्वसाधारण ग़ज़ल तीन बह्रों में से किसी एक में होती है-
(१)छोटी बह्र-
अहले दैरो-हरम रह गये।
तेरे दीवाने कम रह गये।
(२) मध्यम बह्र-
उम्र जल्वों में बसर हो ये ज़रूरी तो नहीं। हर शबे-ग़म की सहर हो ज़रूरी तो नहीं।।
(३) लंबी बह्र-
ऐ मेरे हमनशीं चल कहीं और चल इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं। बात होती गुलों की तो सह लेते हम अब तो कांटों पे भी हक़ हमारा नहीं।।
हासिले-ग़ज़ल शेर-ग़ज़ल का सबसे अच्छा शेर ‘हासिले-ग़ज़ल-शेर’ कहलाता है।
हासिले-मुशायरा ग़जल-मुशायरे में जो सब से अच्छी ग़जल हो उसे ‘हासिले-मुशायरा ग़जल’ कहते हैं।