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"रसवन्ती (कविता) / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
 
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
  
तॄणों में कभी  खोजता फिरा
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तॄणों में कभी  खोजता फिरा <br>
विकल मानवता का कल्याण,
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विकल मानवता का कल्याण, <br>
बैठ खण्डहर मे करता रहा
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बैठ खण्डहर मे करता रहा <b>
कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.
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कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.<br>

17:55, 30 मार्च 2009 का अवतरण

अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !

लिये कीड़ा-वंशी दिन-रात
पलातक शिशु-सा मैं अनजान,
कर्म के कोलाहल से दूर
फिरा गाता फूलों के गान।

कोकिलों ने सिखलाया कभी
माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग,
कण्ठ में आ बैठी अज्ञात
कभी बाड़व की दाहक आग।

पत्तियों फूलों की सुकुमार
गयीं हीरे-से दिल को चीर,
कभी कलिकाओं के मुख देख
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।

तॄणों में कभी खोजता फिरा
विकल मानवता का कल्याण,
बैठ खण्डहर मे करता रहा कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.