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|संग्रह=ताकि सनद रहे / ऋषभ देव शर्मा
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इक्कीसवीं शताब्दी की
पहली रात के अँधेरे में
सोया हुआ था
अनादि काल से।
 
‘बच्चे!
कैसा भय है,
तुम जन्मते क्यों नहीं?’
 
-अपने माथे का पसीना
धरती की
बूढ़ी़ आया।
 
अष्टावक्र सरीखा
बच्चा
चीख उठता है गर्भ में से :
 
‘नहीं आना है मुझे
तुम्हारी दुनिया हें।
नहीं.......नहीं.....नहीं!’
 
और फिर छा जाती है
किसी के पास नहीं है,
किसी के पास नहीं है कोई जवाब |
 
एक बार फिर
गुहार लगाते
वामन की तरह :
 
‘मुझे
जिसकी वायु शुद्ध
और प्रकृति पवित्र हो!’
 
आवाज़ कहीं खो गई है,
और
प्रकृति पवित्र हो!
 
 
 
</poem>
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