"यह कदम्ब का पेड़ / सुभद्राकुमारी चौहान" के अवतरणों में अंतर
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यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।<br> | यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।<br> | ||
− | मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।<br> | + | मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।<br><br> |
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ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।<br> | ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।<br> | ||
− | किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।<br> | + | किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।<br><br> |
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तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।<br> | तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।<br> | ||
− | उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।<br> | + | उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।<br><br> |
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वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।<br> | वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।<br> | ||
− | अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।<br> | + | अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।<br><br> |
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बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।<br> | बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।<br> | ||
− | माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।<br> | + | माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।<br><br> |
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तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।<br> | तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।<br> | ||
− | ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।<br> | + | ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।<br><br> |
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तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।<br> | तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।<br> | ||
− | और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।<br> | + | और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।<br><br> |
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तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।<br> | तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।<br> | ||
− | जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।<br> | + | जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।<br><br> |
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इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।<br> | इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।<br> | ||
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।<br><br> | यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।<br><br> |
21:40, 6 जनवरी 2008 का अवतरण
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।