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"श्रीशारदा-सम्मिलन / मुकुटधर पांडेय" के अवतरणों में अंतर

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लालसा-मग्न रहे अविराम मान-मद में प्रमत्त हो प्राण  
 
लालसा-मग्न रहे अविराम मान-मद में प्रमत्त हो प्राण  
  
क्षुद्रता में बीता सब काल हुआ कुछ नहीं आत्म कल्याण ।
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क्षुद्रता में बीता सब काल हुआ कुछ नहीं आत्म कल्याण।
  
  
  
व्याप्त हो रहा यहाँ चहुँओर सुशीतल सौरभ स्निग्ध महान  
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व्याप्त हो रहा यहाँ चहुँ ओर सुशीतल सौरभ स्निग्ध महान  
  
 
वायु पर इसमें एक विषाक्त मिली है पड़ती मुझको जान  
 
वायु पर इसमें एक विषाक्त मिली है पड़ती मुझको जान  
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शारदा भगिनी मय गुणधाम उसे मैं गई मोह में भूल  
 
शारदा भगिनी मय गुणधाम उसे मैं गई मोह में भूल  
  
आज उपजाती उसकी याद हृदय में रह रह दारुण शूल ।
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आज उपजाती उसकी याद हृदय में रह रह दारुण शूल।
  
  
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सजा है शयन कक्ष अभिराम चतुर्दिक छाया नैश प्रभाव  
 
सजा है शयन कक्ष अभिराम चतुर्दिक छाया नैश प्रभाव  
  
एकदा लक्ष्मी के उर बीच उदय हो आए सात्विक भाव ।
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एकदा लक्ष्मी के उर बीच उदय हो आए सात्विक भाव।
  
  
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भवन से निकल चल पड़ी शीघ्र लक्ष्य कर विद्यारण्य पुनीत  
 
भवन से निकल चल पड़ी शीघ्र लक्ष्य कर विद्यारण्य पुनीत  
  
निमिष में ही अनित्य पर आहा नित्य ने पाई पूरी जीत ।  
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निमिष में ही अनित्य पर अहा नित्य ने पाई पूरी जीत ।  
  
  
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विहग थे गाते सुंदर गीत किया जब उसने वहाँ प्रवेश  
 
विहग थे गाते सुंदर गीत किया जब उसने वहाँ प्रवेश  
  
शारता करती थी हो शांत उषा की उपासनानत भाल  
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शारता करती थी हो शांत उषा का उपासनानत भाल  
  
 
देख लक्ष्मी को सम्मुख खड़ी रह गयी स्तम्भित सी कुछ काल ।
 
देख लक्ष्मी को सम्मुख खड़ी रह गयी स्तम्भित सी कुछ काल ।
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दबाकर फिर विस्मय के भाव दौड़कर लिपट गई सस्नेह
 
दबाकर फिर विस्मय के भाव दौड़कर लिपट गई सस्नेह
  
रही आँखों से आँखे अट हृदय से हृदय, देह से देह  
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रही आँखों से आँखें अटी हृदय से हृदय, देह से देह  
  
 
रूँध गये दोनों ही के कंठ बन गई वाणी मूक अपार  
 
रूँध गये दोनों ही के कंठ बन गई वाणी मूक अपार  
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प्रेम का वह था सहज स्वरूप न था उसमें कृत्रिमता-रो
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प्रेम का वह था सहज स्वरूप न था उसमें कृत्रिमता-रोग
  
 
सत्य ही आत्मा से था अहा शुद्ध वह आत्मा का संयोग  
 
सत्य ही आत्मा से था अहा शुद्ध वह आत्मा का संयोग  
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भला रह सकते कब तक कहो परस्पर हम दोनों प्रतिकुल
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भला रह सकते कब तक कहो परस्पर हम दोनों प्रतिकूल
  
 
नहीं है हममें कुछ भी भेद एक शाखा के हम दो फूल  
 
नहीं है हममें कुछ भी भेद एक शाखा के हम दो फूल  
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पुण्य यह घटिका मंगल मूल आज की संध्या है या प्रात  
 
पुण्य यह घटिका मंगल मूल आज की संध्या है या प्रात  
  
खिल रहे, शांत सरोवर बीच कुमुदिनी-कमल एक ही साथ ।
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खिल रहे, शांत सरोवर बीच कुमुदिनी-कमल एक ही साथ।
  
स्वर्ण किरणों में करता स्नान प्रफूल्लित यह मेरा उद्यान
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स्वर्ण किरणों में करता स्नान प्रफुल्लित यह मेरा उद्यान
  
भूमि से मिलने को क्या आज स्वर्ग ही उतर पड़ा मुद-प्राण ।
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भूमि से मिलने को क्या आज स्वर्ग ही उतर पड़ा मुद-प्राण।
  
  
 
(श्री शारदा, अक्टूबर 1920 में प्रकाशित)
 
(श्री शारदा, अक्टूबर 1920 में प्रकाशित)

14:31, 1 सितम्बर 2006 का अवतरण

कवि: मुकुटधर पांडेय

~*~*~*~*~*~*~*~

अरे सुखमय आमोद-प्रमोद मधुरता-मय रे विभव-विलास

बुझा तुम सकते हो क्या कहो कभी अंतर-तर की भी प्यास

लालसा-मग्न रहे अविराम मान-मद में प्रमत्त हो प्राण

क्षुद्रता में बीता सब काल हुआ कुछ नहीं आत्म कल्याण।


व्याप्त हो रहा यहाँ चहुँ ओर सुशीतल सौरभ स्निग्ध महान

वायु पर इसमें एक विषाक्त मिली है पड़ती मुझको जान

मलिन करते विद्युत-आलोक कर रहे ये मणि-दीप प्रकाश

हो रहा इसमें मुझको आज एक गुरुतर अभाव अभास ।


नहीं नयनों में मेरे नींद रिक्त यह पडा स्वर्ण-पर्यक

विकलता लखकर मेरी आज व्योम में हँसता शुभ्र-मयंक

शारदा भगिनी मय गुणधाम उसे मैं गई मोह में भूल

आज उपजाती उसकी याद हृदय में रह रह दारुण शूल।


किया यद्यपि मैंने बहुवार उपेक्षा-युत उसका अपमान

बहिन को क्षमा-दान कर बहिन न क्या कर सकती दुख से त्राण

सजा है शयन कक्ष अभिराम चतुर्दिक छाया नैश प्रभाव

एकदा लक्ष्मी के उर बीच उदय हो आए सात्विक भाव।


सत्व-मय भावागम के साथ जग उठी उर विराग की ज्वाल

फेंक झट उसे कांचन-माल किया धारण रुद्राक्ष विशाल

भवन से निकल चल पड़ी शीघ्र लक्ष्य कर विद्यारण्य पुनीत

निमिष में ही अनित्य पर अहा नित्य ने पाई पूरी जीत ।


डोलते थे विटपों के पत्र जाग था उठा अरण्य प्रदेश

विहग थे गाते सुंदर गीत किया जब उसने वहाँ प्रवेश

शारता करती थी हो शांत उषा का उपासनानत भाल

देख लक्ष्मी को सम्मुख खड़ी रह गयी स्तम्भित सी कुछ काल ।


दबाकर फिर विस्मय के भाव दौड़कर लिपट गई सस्नेह

रही आँखों से आँखें अटी हृदय से हृदय, देह से देह

रूँध गये दोनों ही के कंठ बन गई वाणी मूक अपार

बह पड़ा अंतर का सब मैल लोचनों से बनकर जल-धार।


प्रेम का वह था सहज स्वरूप न था उसमें कृत्रिमता-रोग

सत्य ही आत्मा से था अहा शुद्ध वह आत्मा का संयोग

सुस्वागत स्वागत प्यारी बहिन तुम्हारा करके स्वागत गान

धन्य मैं हुई आज सविशेष धन्य है यह मेरा उद्यान ।


भला रह सकते कब तक कहो परस्पर हम दोनों प्रतिकूल

नहीं है हममें कुछ भी भेद एक शाखा के हम दो फूल


पुण्य यह घटिका मंगल मूल आज की संध्या है या प्रात

खिल रहे, शांत सरोवर बीच कुमुदिनी-कमल एक ही साथ।

स्वर्ण किरणों में करता स्नान प्रफुल्लित यह मेरा उद्यान

भूमि से मिलने को क्या आज स्वर्ग ही उतर पड़ा मुद-प्राण।


(श्री शारदा, अक्टूबर 1920 में प्रकाशित)