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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''कविजन खोज रहे अमराई<br>
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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''शहर में रात<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[अष्टभुजा शुक्ल]]  
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[केदारनाथ सिंह]]  
 
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कविजन खोज रहे अमराई ।
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बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
जनता मरे , मिटे या डूबे इनने ख्याति कमाई ॥
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वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
शब्दों का माठा मथ-मथकर कविता को खट्टाते ।
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वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते
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वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
सोख रहीं गहरी मुषकैलें, डांड़ हो रहा पानी ।
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वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
गेहूं के पौधे मुरझाते , हैं अधबीच जवानी ॥
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हैं उलझ गए जीने के सारे धागे
बचा-खुचा भी चर लेते हैं , नीलगाय के झुंड ।
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यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ
ऊपर से हगनी-मुतनी में , खेत बन रहे कुंड ॥
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कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ
कुहरे में रोता है सूरज केवल आंसू-आंसू ।
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यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धांसू ॥
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ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी
बाली सरक रही सपने में , है बंहोर के नीचे ।
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तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
लगे गुदगुदी मानो हमने रति की चोली फींचे ॥
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यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
जागो तो सिर धुन पछताओ , हाय-हाय कर चीखो ।
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साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ
अष्टभुजा पद क्यों करते हो कविता करना सीखो ॥
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इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ
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जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
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किस तरह रात-भर बजती हैं जंज़ीरें
 
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01:48, 24 मई 2009 का अवतरण

 सप्ताह की कविता

  शीर्षक: शहर में रात
  रचनाकार: केदारनाथ सिंह

बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
हैं उलझ गए जीने के सारे धागे
यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ
कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ
इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ
जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
किस तरह रात-भर बजती हैं जंज़ीरें