भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"साँचा:KKPoemOfTheWeek" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
<div id="kkHomePageSearchBoxDiv" class='boxcontent' style='background-color:#F5CCBB;border:1px solid #DD5511;'> | <div id="kkHomePageSearchBoxDiv" class='boxcontent' style='background-color:#F5CCBB;border:1px solid #DD5511;'> | ||
<!----BOX CONTENT STARTS------> | <!----BOX CONTENT STARTS------> | ||
− | '''शीर्षक: ''' | + | '''शीर्षक: '''शहर में रात<br> |
− | '''रचनाकार:''' [[ | + | '''रचनाकार:''' [[केदारनाथ सिंह]] |
<pre style="overflow:auto;height:21em;"> | <pre style="overflow:auto;height:21em;"> | ||
− | + | बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है | |
− | + | वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है | |
− | + | वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा | |
− | + | वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा | |
− | + | वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे | |
− | + | हैं उलझ गए जीने के सारे धागे | |
− | + | यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ | |
− | + | कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ | |
− | + | यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी | |
− | + | ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी | |
− | + | तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में | |
− | + | यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में | |
− | + | साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ | |
− | + | इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ | |
+ | जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे | ||
+ | किस तरह रात-भर बजती हैं जंज़ीरें | ||
</pre> | </pre> | ||
<!----BOX CONTENT ENDS------> | <!----BOX CONTENT ENDS------> | ||
</div><div class='boxbottom'><div></div></div></div> | </div><div class='boxbottom'><div></div></div></div> |
01:48, 24 मई 2009 का अवतरण
सप्ताह की कविता
शीर्षक: शहर में रात
रचनाकार: केदारनाथ सिंह
बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे हैं उलझ गए जीने के सारे धागे यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे किस तरह रात-भर बजती हैं जंज़ीरें