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बिहारी के दोहे

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…लक्ष्मीनारायण गुप्त द्वारा लिखित लेख
 
…25 जुलाई 2006
 
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मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।<br>
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥<br><br>
सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार।।
 
 
पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।
 
नित प्रति पून्यौ ही रहै, आनन-ओप उजास॥
 
 
कहति नटति रीझति खिझति, मिलति खिलति लजि जात।
 
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥
 
 
छला छबीले लाल को, नवल नेह लहि नारि।
 
चूमति चाहति लाय उर, पहिरति धरति उतारि।
 
 
सघन कुंज घन, घन तिमिर, अधिक ऍंधेरी राति।
 
तऊ न दुरिहै स्याम यह, दीप-सिखा सी जाति॥
 
 
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
 
सौंह करै, भौंहन हँसै, देन कहै नटि जाय॥
 
 
कर-मुँदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।
 
पीठि दिये निधरक लखै, इकटक डीठि लगाइ॥
 
 
दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
 
परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति॥
 
 
पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।
 
आजु मिले सु भली करी, भले बने हौ लाल॥
 
 
अंग-अंग नग जगमगैं, दीपसिखा-सी देह।
 
दियो बढाएँ ही रहै, बढो उजेरो गेह॥
 
 
रूप सुधा-आसव छक्यो, आसव पियत बनै न।
 
प्यालैं ओठ, प्रिया बदन, रह्मो लगाए नैन॥
 
 
तर झरसी, ऊपर गरी, कज्जल-जल छिरकाइ।
 
पिय पाती बिन ही लिखी, बाँची बिरह-बलाइ॥
 
 
कर लै चूमि चढाइ सिर, उर लगाइ भुज भेंटि।
 
लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥
 
 
कहत सबै, बेंदी दिये, ऑंक हस गुनो होत।
 
तिय लिलार बेंदी दिये, अगनित होत उदोत॥
 
 
कच समेटि करि भुज उलटि, खए सीस पट डारि।
 
काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि॥
 
 
भूषन भार सँभारिहै, क्यों यह तन सुकुमार।
 
सूधे पाय न परत हैं, सोभा ही के भार॥
 
 
लिखन बैठि जाकी सबिह, गहि-गहि गरब गरूर।
 
भये न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥