"करिश्मा / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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'''करिश्मा''' | '''करिश्मा''' |
23:52, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
करिश्मा
मिरे लहू में जो तौरैत<ref>हज़रत मूसा पर नाज़िल होनेवाली आस्मानी किताब</ref> का तरन्नुम है
मिरी रगों में जो यह ज़मज़मः ज़ुबूर<ref>हज़रत दाऊद पर नाज़िल होनेवाली आस्मानी किताब</ref> का है
यह सब यहूदो-नसारा के ख़ूँ की लहरें हैं
मचल रही हैं, जो मेरे लहू की गंगा में
मैं साँस लेता हूँ जिन फेफड़ों की जुम्बिश से
किसी मुगन्नि-ए-आतश-नफ़स<ref>अग्निवत स्वरोंवाला गायक</ref> ने बख़्शे हैं
ज़वाँ है मुसहफ़े-यज़दाँ का लह्ने-दाऊदी
किसी की नर्गिसी आँखों का नर्गिसी पर्दा
मिरी नज़र को अता कर रहा है बीनाई
निगाहे-शौक़ की है बेकरारियाँ क्या-क्या
तुलूए-मिह्र की हैं नक़्शकारियाँ क्या-क्या
महो-नुजूम की हैं ज़ल्वः-बारियाँ क्या-क्या
ज़मीं से ता-ब-फ़लक रक़्स में हैं लैलाएँ
शिगुफ़्ता सूरते-गुल, हर तरफ़ तमन्नाएँ
ख़ुदा का शुक्र अदा जब ज़बान करती है
तो दिल तड़पता है इक ऐसी क़ाफ़िरा के लिए
खु़दा भी मेरी तरह, जिस को प्यार करता है
वो जिस्मे-नाज़, युहिब्बुल-ज़माल का नग़्मा
वो सर से पाँव तलक माहो-साल का नग़्मा
जलाले-हिज्रो-शिकोहे-विसाल का नग़्मा
जहाने-इश्क़ में, तफ़रीके-इस्मो-ज़ात<ref>नस्ल व जात-पाँत का भेदभाव</ref> नहीं
जहाने-हुस्न में तक़सीमे-हिन्द-ओ-पाक नहीं
सिवा गुलों के गिरीबाँ किसी का चाक नहीं
यह आलमे-बशरी, एहतिराम का आलम
तमामतर है दुरूद-ओ-सलाम का आलम
नफ़स-नफ़स में मिरे ज़मज़मः महब्बत का
मिरा वुजूद, क़सीदा बशर की अज़्मत का
ये सब करिश्मा है, इन्सानियत की वहदत<ref>एकत्व</ref> का