भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"साँचा:KKPoemOfTheWeek" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
<div id="kkHomePageSearchBoxDiv" class='boxcontent' style='background-color:#F5CCBB;border:1px solid #DD5511;'> | <div id="kkHomePageSearchBoxDiv" class='boxcontent' style='background-color:#F5CCBB;border:1px solid #DD5511;'> | ||
<!----BOX CONTENT STARTS------> | <!----BOX CONTENT STARTS------> | ||
− | '''शीर्षक: ''' | + | '''शीर्षक: '''निडर औरतें<br> |
'''रचनाकार:''' [[शुभा]] | '''रचनाकार:''' [[शुभा]] | ||
<pre style="overflow:auto;height:21em;"> | <pre style="overflow:auto;height:21em;"> | ||
− | + | हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं | |
− | + | क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं | |
− | + | हम औरतें मरे हुओं को भी | |
+ | बहुत समय जीवित देखती हैं | ||
− | + | सच तो ये है हम मौत को | |
− | और | + | लगभग झूठ मानती हैं |
− | + | और बिछुड़ने का दुख हम | |
− | + | ख़ूब समझती हैं | |
+ | और बिछुड़े हुओं को हम | ||
+ | खूब याद रखती हैं | ||
+ | वे लगभग सशरीर हमारी | ||
+ | दुनियाओं में चलते-फिरते हैं | ||
− | + | हम जन्म देती हैं और इसको | |
− | + | कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं | |
− | + | कि हमारी पूजा की जाए | |
+ | |||
+ | ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम | ||
+ | काफ़ी व्यस्त रहती हैं | ||
+ | और हमारा रोना-गाना | ||
+ | बस चलता ही रहता है | ||
+ | |||
+ | हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं | ||
+ | न बैरागी हो पाती हैं | ||
+ | हम नरक का द्वार कही जाती हैं | ||
+ | |||
+ | सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी | ||
+ | साधु और संत नरक से डरते हैं | ||
+ | |||
+ | और हम नरक में जन्म देती हैं | ||
+ | इस तरह यह जीवन चलता है | ||
</pre> | </pre> | ||
<!----BOX CONTENT ENDS------> | <!----BOX CONTENT ENDS------> | ||
</div><div class='boxbottom'><div></div></div></div> | </div><div class='boxbottom'><div></div></div></div> |
01:47, 6 जून 2009 का अवतरण
सप्ताह की कविता
शीर्षक: निडर औरतें
रचनाकार: शुभा
हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं हम औरतें मरे हुओं को भी बहुत समय जीवित देखती हैं सच तो ये है हम मौत को लगभग झूठ मानती हैं और बिछुड़ने का दुख हम ख़ूब समझती हैं और बिछुड़े हुओं को हम खूब याद रखती हैं वे लगभग सशरीर हमारी दुनियाओं में चलते-फिरते हैं हम जन्म देती हैं और इसको कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं कि हमारी पूजा की जाए ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम काफ़ी व्यस्त रहती हैं और हमारा रोना-गाना बस चलता ही रहता है हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं न बैरागी हो पाती हैं हम नरक का द्वार कही जाती हैं सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी साधु और संत नरक से डरते हैं और हम नरक में जन्म देती हैं इस तरह यह जीवन चलता है