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"अपने जन्मदिन पर-2 / प्रेमचन्द गांधी" के अवतरणों में अंतर

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बढ़ती जा रही है बालों मे सफे़दी
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कम होते जा रहे हैं आकर्षण
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स्मृति से लुप्त होते जा रहे हैं
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सहपाठियों के नाम और चेहरे
  
पीढ़ियाँ गुज़र गईं हमारी
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संघर्ष भरे दिन
सूत कातते-कपड़ा बुनते
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आज भी दहला देते हैं दिल
 
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शायद अब न लड़ सकूँ पहले की तरह
घुमाते रहे हम शताब्दियों तक चरखा
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पर नहीं घूम पाया
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हमारे जीवन का चरखा
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पृथ्वी को लपेटने लायक
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भले ही बुन लिया हमने कपड़ा
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पर ख़ुद के लिए हमें कभी नहीं हो सका नसीब
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चीथड़ों से ज़्यादा
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हमारे ख़ून-पसीने की नमी पाकर
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रूई बदल गई सूत में
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हमारे कौशल से सूत ने
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आकार लिया कपड़े का
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हमीं ने बनाया रेशम
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हमीं ने बनायी ढाका की मलमल
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हमीं से सीखा गाँधी ने आज़ादी का मतलब
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फिर पूरे देश ने जानी
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बुनकर की अहमियत
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21:07, 31 मई 2009 के समय का अवतरण

बढ़ती जा रही है बालों मे सफे़दी
कम होते जा रहे हैं आकर्षण
स्मृति से लुप्त होते जा रहे हैं
सहपाठियों के नाम और चेहरे

संघर्ष भरे दिन
आज भी दहला देते हैं दिल
शायद अब न लड़ सकूँ पहले की तरह