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| माँगता हुआ सूरज है | | माँगता हुआ सूरज है |
| बुनकरों का यह गाँव | | बुनकरों का यह गाँव |
− | </poem>
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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=प्रेमचन्द गांधी
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− | |संग्रह=
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− | <Poem>
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− | अपने जन्मदिन पर
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− | एक
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− | न जाने कितने बीहड़ों को पार कर आया हूँ मैं
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− | जिसे बचपन में मास्टरजी
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− | कप-प्लेट धोने से ज़्यादा योग्य नहीं समझते थे
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− | कितने ही जन्मदिन आये-गये
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− | ख़याल ही नहीं रहा
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− | कुछ तो सिर्फ़ मजूरी करते हुए काटे
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− | आज भी याद नहीं रहता
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− | घर वाले ही याद दिलाते हैं अक़सर
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− | या कुछ सबसे अच्छे दोस्त
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− | इस जन्म-तारीख़ में कुछ भी तो नहीं उल्लेखनीय
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− | सिवा इसके कि इसी दिन जन्मी थीं महादेवी
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− | और मैं भी करता हूं कविताई
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− | दो
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− | बढ़ती जा रही है बालों मे सफे़दी
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− | कम होते जा रहे हैं आकर्षण
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− | स्मृति से लुप्त होते जा रहे हैं
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− | सहपाठियों के नाम और चेहरे
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− | संघर्ष भरे दिन
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− | आज भी दहला देते हैं दिल
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− | शायद अब न लड़ सकूँ पहले की तरह
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− | तीन
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− | आखि़री नहीं है यह जन्म-दिन
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− | और लड़ाई के लिए है पूरा मैदान
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− | आज के दिन मैं लौटाना चाहता हूँ
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− | एक उदास बच्चे की हँसी
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− | आज के दिन मैं
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− | घूमना चाहता हूँ पूरी पृथ्वी पर
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− | एक निश्शंक मनुष्य की तरह
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− | नियाग्रा फाल्स के कनाडाई छोर से
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− | मैं आवाज़ देना चाहता हूँ अमरीका को कि
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− | सृष्टि के इस अप्रतिम सौन्दर्य को निहारो
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− | हथियारों की राजनीति से बेहतर है
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− | यहाँ की लहरों में भीगना
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− | आज के दिन मैं धरती को
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− | बाँहों में भर लेना चाहता हूँ प्रेमिका की तरह
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− | रथयात्रा
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− | उसके हाथ में
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− | कोई हथियार नहीं था
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− | उसका चेहरा बड़ा भव्य था
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− | वह खुली जीप में आया था
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− | उसके आगे पीछे
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− | लम्बा चौड़ा काफ़िला था वाहनों का
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− | माथे पर पट्टियाँ बांधे
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− | जोश में नारे लगाती
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− | अनुयायियों की
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− | उन्मादी भीड़ थी
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− | उसके चारों ओर
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− | वह रौंदता जा रहा था
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− | मेहनतकशों की बनायी
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− | उम्मीदों की सड़क
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− | उसके आने से पहले ही
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− | लोग दुबक चुके थे घरों में
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− | किसी अनिष्ट की आशंका से
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− | बंद हो गए थे बाज़ार
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− | फैला हुआ था सन्नाटा चारों ओर
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− | कोई नहीं देख रहा था
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− | उसकी सवारी
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− | अनुयायियों की उन्मादी भीड़ के सिवा
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− | हमारा गाँव
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− | पहाड़ की तलहटी में बसा था गाँव
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− | हम नहीं बस सकते थे गाँव के बीच
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− | इसलिए हमें वहाँ बसाया गया
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− | जहाँ गाँव को सबसे ज़्यादा ख़तरा था
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− | मसलन वहीं से जाता था गाँव और पहाड़ का पानी
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− | नीचे तालाब में
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− | वहीं से था रास्ता
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− | जंगली जानवरों के आने-जाने का
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− | और दरअसल हमारे घरों के बाद कोई घर नहीं था
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− | बारिश में पहाड़ का पानी
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− | हमारे घरों पर कहर बरपाता
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− | गाँव का पानी हमारे रास्ते रोक देता
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− | और तालाब तो ख़तरे की घंटी था ही
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− | हर बारिश हमें कुछ और विपन्न कर जाती
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− | हर साल हमारे कुछ बच्चे और मवेशी
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− | जंगली जानवर उठा ले जाते
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− | और बंदरों ने तो हम पर कभी दया नहीं की
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− | हम क्षत्रिय नहीं थे लेकिन
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− | पीढ़ियों तक लड़ते रहे गाँव की ख़ातिर
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− | उस गाँव की ख़ातिर
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− | जहाँ हमारे लिए कुँए के पास जाना भी वर्जित था
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− | मंदिर को भी हम फ़ासले से ही धोक पाते थे
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− | वह भी दरवाज़ा बंद होने के बाद
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− | हमारा और गाँव के मवेशियों का एक ही जल-स्रोत था
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− | गाँव के मवेशी भी हम नहीं छू सकते थे
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− | उनके मरने से पहले
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− | यूँ गाँव-भर के खेतों में
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− | उम्र भर खटती रहीं हमारी पीढ़ियाँ
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− | यूँ खटते-खटते ही आ गई आज़ादी
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− | हमारे बुज़ुर्गों को आज तक पता नहीं आज़ादी का
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− | आत्म-निर्वासन
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− | इस बार मैं जाना चाहता हूँ
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− | एक लम्बे निर्वासन में
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− | मैं डूब जाना चाहता हूँ
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− | यथार्थ के गहन अंधकार में
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− | जहाँ चीज़ें इस कदर बदशक्ल हो गयी हैं
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− | कि मैं अपना चेहरा भी ठीक से नहीं पहचान पा रहा
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− | मेरी इच्छा है
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− | इस विभ्रम के तल में जाकर
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− | ख़ुद को भूल जाने की
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− | जब काल के तीनों खण्ड
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− | एकमेक हो गए हैं
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− | मैं उस विस्मृति में जीना चाहता हूँ
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− | जहाँ भूत, भविष्य और वर्तमान से
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− | मैं अलग-अलग सवाल कर सकूँ
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− | दरअसल मेरे सामने
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− | मिट्टी का एक दीपक है
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− | सिंधु घाटी सभ्यता का
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− | मैं इस अंधियारे समय में
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− | इस दीपक के साथ
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− | आई टी की दुनिया में
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− | दाख़िल होना चाहता हूँ
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− | भविष्य के स्वयम्भू प्रहरी
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− | मेरे रास्ते में अवरोध बनकर खड़े हैं
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− | उनके हाथों में
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− | शिव के त्रिशूल से लेकर
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− | गोडसे की बंदूक तक सब हथियार हैं
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− | मैं इन्हें ठेंगा दिखाते हुए
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− | गहन अंधकार से
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− | प्रकाशमान दीपक आगे ले जाना चाहता हूँ
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− | स्थिति बड़ी विकट है
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− | सरकार ने निर्वासन पर
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− | प्रतिबंध लगा दिया है
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− | स्मृतियों में जीना साम्प्रदायिक होना है
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− | और विस्मृति में जीना धर्म विरूद्ध
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− | दीपक जलाना आधुनिकता के खि़लाफ़ है
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− | और अंधेरे को अंधेरा कहना बेहद ख़तरनाक
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− | आप मौन और वाणी से लेकर
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− | किसी भी चीज़ का
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− | हथियार की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते
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− | किसी भी प्रकार का प्रतिरोध
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− | अन्ततः एक राष्ट्रद्रोह है
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− | अगर मुझे अपने पड़ौसी की तरह
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− | गृहमंत्री या प्रधानमंत्री की शक्ल पंसद नहीं
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− | तो इसे भी एक साजिश ही माना जाएगा
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− | इसलिए निर्वासन की मेरी इच्छा
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− | एक कमज़ोर बूढ़े नेतृत्व का प्रतिकार है
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− | मूर्तिकार
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− | एक
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− | ध्यान से सुनो
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− | छैनी हथौड़े का यह संगीत
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− | खो जाओ
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− | मेहनत और कारीगरी की इस सिम्फनी में
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− | एक आदमी
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− | तराश रहा है विधाता को
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− | दो
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− | अभी तो वह बच्चे की तरह
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− | चुहल कर रहा है ईश्वर के साथ
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− | उसके पैरों में है ईश्वर
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− | हाथों में छैनी हथौड़ा लिये
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− | वह गढ़ रहा है
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− | एक-एक अंग
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− | वस्त्र-आभूषण
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− | उसके हाथों में क़ैद है ईश्वर की मुस्कान
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− | वह चाहे तो बना दे ईश्वर की रोनी सूरत
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− | ईश्वर उसका क्या बिगाड़ लेगा
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− | वह तो उसका विधाता है पृथ्वी पर
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− | तीन
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− | अनगिनत शीश झुकेंगे
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− | इस मूरत के आगे श्रद्धा में
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− | नहीं जानेगा कोई
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− | इसके विधाता का नाम
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− | फिर भी नतमस्तक होंगे
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− | जैसे धरती पर मत्था टेककर
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− | हाथ जोड़ रहे हों सूर्य के
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− | शहीदों के नाम माफ़ीनामा
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− | शहीदो
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− | मैं पूरे देश की ओर से
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− | आपसे क्षमा चाहता हूँ
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− | हमें माफ़ करना
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− | हमारे भीतर आप जैसा
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− | देश प्रेम का जज़्बा नहीं रहा
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− | हमारे लिए देश
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− | रगों में दौड़ने वाला लहू नहीं रहा
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− | अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से आबद्ध
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− | भूमि का एक टुकड़ा मात्र है देश
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− | हमें माफ़ करना
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− | हम भूल गये हैं
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− | जन-गण-मन और
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− | वंदे मातरम् का फ़र्क
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− | नहीं जानते हम
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− | किसने लिखा था कौनसा गीत
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− | किसके लिए
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− | हमें माफ़ करना
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− | हमारे स्कूल-घर-दफ़्तरों में
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− | आपकी तस्वीरों की जगह
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− | सुंदर द्दश्यावलियों
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− | आधुनिक चित्रों और
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− | फ़िल्मी चरित्रों ने ले ली है
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− | हमें माफ़ करना
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− | ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गाते हुए
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− | भले ही रुँध जाता होगा
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− | लता मंगेशकर का गला
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− | हमारी आँखों में तो कम्पन भी नहीं होता
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− | हमें माफ़ करना
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− | हम देशभक्ति के तराने
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− | साल में सिर्फ़ दो बार सुनते हैं
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− | हम पाँव पकड़कर क्षमा चाहते हैं
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− | आपने जिन्हें विदेशी आक्रांता कहकर
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− | भगा दिया था सात समुंदरों पार
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− | उन्हीं के आगमन पर हमने
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− | समुद्र से संसद तक
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− | बिछा दिये हैं पलक-पाँवड़े
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− | हमें माफ़ करना
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− | हम परजीवी हो गये हैं
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− | अपने पैरों पर खड़े रहने का
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− | हमारे भीतर माद्दा नहीं रहा
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− | हमारे घुटनों ने चूम ली है ज़मीन
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− | और हाथ उठ गये हैं निराशा में आसमान की ओर
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− | हमें माफ़ करना
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− | आने वाली पीढ़ियों को
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− | हम नहीं बता पायेंगे
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− | बिस्मिल, भगतसिंह, अशफ़ाक़ उल्ला का नाम
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− | हमें माफ़ करना
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− | हमारे इरादे नेक नहीं हैं
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− | हमें माफ़ करना
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− | हम नहीं जानते
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− | हम क्या कर रहे हैं
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− | हमें माफ़ करना
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− | हम यह देश
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− | नहीं सँभाल पा रहे हैं
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− | बहुत कुछ बचा रहेगा
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− | वैज्ञानिक कह चुके हैं
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− | नष्ट हो जायेगी एक दिन पृथ्वी
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− | जैसे नष्ट हुआ था मंगल
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− | हम नहीं बचेंगे इस रूप में
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− | नष्ट होती हुई पृथ्वी को देखने
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− | फिर भी बचा रहेगा बहुत कुछ
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− | इस नष्ट और उजाड़ पृथ्वी के आँगन में
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− | मसलन बचा रहेगा प्रेम का वह तत्व
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− | जो हमने इस पृथ्वी पर पैदा किया
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− | जहाँ कहीं पड़े थे
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− | हमारे दो जोड़ी-पैरों के निशान
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− | वहाँ की मिट्टी में हमारा अहसास बचा रहेगा
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− | जिस पेड़ की छाँव में जिस घास पर जिस पत्थर पर
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− | हम बैठे थे कभी साथ-साथ
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− | वहाँ हमारे होने की ख़ुशबू बची रहेगी
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− | साथ बिताये अहसास में हमने
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− | जो शब्द उच्चारे थे साथ-साथ
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− | उनकी ध्वनियाँ बची रहेंगी
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− | उन स्पर्शों की गरमाहट बची रहेगी
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− | जो हमने कभी किये ही नहीं
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− | उन चुम्बनों की मिठास बची रहेगी
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− | जो हमने कभी लिये ही नहीं
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− | आँखों के परदे पर
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− | एक दूसरे की तस्वीर देखने का सुख बचा रहेगा
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− | वे तस्वीरें बची रहेंगी
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− | जो हमारी आँखों ने उतारीं
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− | वह चमक बची रहेगी
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− | जो आँखों में व्याप्त रहती थी
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− | इस पृथ्वी ने जितने झेले कष्ट
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− | उन कष्टों का होना बचा रहेगा
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− | करोड़ों आँखों के अविरल बहे आँसुओं की
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− | आर्द्रता बची रहेगी
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− | स्त्रियों, बच्चों और तमाम दुखियारों की
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− | चीखें बची रहेंगी
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− | उन सपनों की छवियाँ बची रहेंगी
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− | जिन्हें मनुष्य कभी पूरा नहीं कर पाया
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− | मनुष्य के प्रयत्नों के पसीने की
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− | गन्ध बची रहेगी
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− | वैज्ञानिकों से जाकर कह दो
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− | पृथ्वी के नष्ट होने के बाद भी
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− | बहुत कुछ बचा रहेगा और
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− | इसमें इन्सान कुछ नहीं कर सकेगा
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− | बसन्त और उल्काएं
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− | तीन बाई दो की उस पथरीली बेंच पर
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− | तुमने बैठते ही पूछा था कि
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− | बसन्त से पहले झड़े हुए पत्तों का
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− | उल्काओं से क्या रिश्ता है
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− | पसोपेश में पड़ गया था मैं यह सोचकर कि
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− | उल्काएं कौनसे बसंत के पहले गिरती हैं कि
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− | पृथ्वी के अलावा सृष्टि में और कहाँ आता है बसन्त
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− | चंद्रमा से पूछा मैंने तो उसने कहा
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− | ‘मैं तो ख़ुद रोज़-रोज़ झड़ता हूँ
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− | मेरे यहाँ हर दूसरे पखवाड़े बसन्त आता है
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− | लेकिन उल्काओं के बारे में नहीं जानता मैं’
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− | पृथ्वी ने भी ऐसा ही जवाब दिया
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− | ‘मैं तो ख़ुद एक टूटे हुए तारे की कड़ी हूँ
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− | उल्काओं के बारे में तो जानती हूँ मैं
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− | लेकिन बसंत से उनका रिश्ता मुझे पता नहीं’
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− | एक गिरती हुई उल्का ने ही
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− | तुम्हारे सवाल का जवाब दिया
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− | ‘ब्रह्माण्ड एक वृक्ष है और ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र उसकी शाखाएं हैं
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− | हम जैसे छोटे सितारे उसके पत्ते हैं
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− | पृथ्वी पर जब बसन्त आता है तो
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− | हम देखने चले आते हैं
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− | झड़े हुए पत्ते हमारे पिछले बरस के दोस्त हैं’
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− | आओ हम दोनों मिलकर
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− | इस बसंत में आयी हुई उल्काओं का स्वागत करें
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− | दूर हों या पास
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− | कितनी लम्बी दूरियाँ हैं
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− | और कितनी सीमाएं हैं हमारे बीच कि
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− | जब दर्द से फटा जा रहा हो तुम्हारा सिर
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− | मैं कुछ नहीं कर सकता
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− | सिवा सांत्वना के दो शब्द कहने के
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− | जब तुम्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है मेरी
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− |
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− | मैं तुम्हारे पास नहीं होता
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− | जब तुम्हें चाहिये होता है मेरा हाथ
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− | मैं नहीं होता अक्सर तुम्हारे साथ
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− | कितनी भोली और भली हो तुम
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− | जो सहज ही कर लेती हो मुझ पर विश्वास
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− | मैं नहीं जानता
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− | कैसे काम कर जाते हैं मेरे कुछ शब्द
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− | तेज़ बुखार या भयानक सरदर्द में
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− | मेरे जुकाम पर घर को अस्पताल बना देने वाली
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− | मेरी बातों से क्यों बहल जाती हो
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− | इतना भोलापन अच्छा नहीं
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− | कब समझोगी तुम कि
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− | मेरे शब्द पुरुषोचित संजीदगी से ज़्यादा कुछ नहीं
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− | तुम्हारे साथ या पास होकर भी मैं क्या कर लेता
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− | सर दबा देता या माथा चूम लेता
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− | और तुम ख़ुश हो जाती
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− | हम दूर हों या पास मगर एक साथ
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− | एक विश्वास भरे स्पर्श या चुम्बन की प्रतीक्षा में
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− | ज़िंदगी जीने का रोज़ाना अभ्यास करते हैं
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− | उसने कहा था...
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− | याद करते रहना
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− | मगर रोना नहीं
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− | मन करे तो चिट्ठी लिखना
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− | लेकिन, डाकिए की राह
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− | कभी मत देखना
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− | मैं न रोया
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− |
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− | न चिट्ठी लिखी
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− | हाँ, याद रखा उसका जाना
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− | और जो उसने कहा था
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− | प्रेम की पीड़ा में
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− | बिना रोये ही
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− | सूख गयीं आँखें
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− | चिट्ठियाँ लिखना तक भूल गये हाथ
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− | तुमने कहा था
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− | एक
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− | आकाश में जो सबसे ऊँचे उड़ते हैं पंछी
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− | वे ही सबसे लंबा सफर तय करते हैं
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− | क्या तुम मेरे लिये इतना कर सकोगे ?
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− | जाओ ! तौलकर देखो अपने डैने
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− | क्षणिक उड़ान के पंछी नहीं हो तुम
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− | दो
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− | यह देह रहे न रहे
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− | मेरा प्रेम हमेशा रहेगा
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− | मेरी अनुपस्थिति में जब तुम मुझे पुकारोगे
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− |
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− | तुम्हारे भीतर जाग उठूंगी मैं
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− | मुझे याद करोगे जब
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− | तुम्हारी आँखों से आँसू बन ढरक जाऊंगी
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− | उन आँसूओं को पीना मत भूलना
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− | मुझे अदेह चुम्बन से वंचित मत रखना
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− | तीन
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− | पहला चुम्बन और पहला आलिंगन
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− | कभी नहीं भूलता कोई
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− | भूलने के लिए और भी बहुत-सी चीजे़ं हैं
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− | मसलन बहुत सारे सुख जो हमने साथ-साथ भोगे
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− | उन दुखों को नहीं भूलना प्रिय
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− | जो हमने साथ-साथ काटे
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− | चार
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− | हमारा प्रेम एक दुख है
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− | जैसे पृथ्वी पर दूसरे दुख हैं
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− | वे भी हमारे ही दुख हैं
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− | हमने दुख गिने नहीं, जो मिले भोग लिये
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− | क्योंकि प्रेम सबसे बड़ा दुख है
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− | पाँच
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− | यह चंद्रमा न होता तो
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− | यह पृथ्वी भी ऐसी न होती
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| |
− | चंद्रमा और पृथ्वी के बीच
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− | जो शून्य गुरूत्वाकर्षण है
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− | वहीं हमारा प्रेम बसता है
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− | छः
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− | मेरे पास चंद सिक्के हैं
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− | और तुम्हारे पास थोड़े से रुपये
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− | क्यों न हम इस थोड़ी-सी पूंजी से एक सपना देखें
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− | सपने के इस थियेटर में हम
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− | अकेले ही तो नहीं होंगे ?
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− | दादी की खोज में
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− | उस गुवाड़़ी में यूँ अचानक बिना सूचना दिये मेरा चले जाना
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− | घर-भर की अफ़रा-तफ़री का बायस बना
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− | नंग-धड़ंग बच्चों को लिये दो स्त्रियाँ झोंपड़ों में चली गईं
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− | एक बूढ़ी स्त्री जो दूर के रिश्ते में
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− | मेरी दादी की बहन थी
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− |
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− | मुझे ग़ौर से देखने लगी
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− | अपने जीवन का सारा अनुभव लगा कर उसने
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− | बिना बताए ही पहचान लिया मुझे
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− | ‘तू गंगा को पोतो आ बेटा आ’
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− | मेरे चरण-स्पर्श से आल्हादित हो उसने
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− |
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− | अपने पीढे़ पर मेरे लिए जगह बनायी
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− |
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− | बहुओं को मेरी शिनाख़्त की घोषणा की
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− | और पूछने लगी मुझसे घर-भर के समाचार
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− | थोड़ी देर में आयी एक स्त्री
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− | पीतल के बड़े-से गिलास में मेरे लिए पानी लिये
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| |
− | मैं पानी पीता हुआ देखता रहा
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− | उसके दूसरे हाथ में गुळी के लोटे को
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− |
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− | एक पुरानी सभ्यता की तरह
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− | थोड़ी देर बाद दूसरी स्त्री
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− |
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− | टूटी डण्डी के कपों में चाय लिए आयी
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| |
− | उसके साथ आये
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− | चार-बच्चे चड्डियाँ पहने
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− |
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− | उनके पीछे एक लड़की और लड़का
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− | स्कूल-यूनिफार्म में
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− | कदाचित यह उनकी सर्वश्रेष्ठ पोशाक थी
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− |
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− |
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− | मैं अपनी दादी की दूर के रिश्ते की बहन से मिला
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− |
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− | मैंने तो क्या मेरे पिताजी ने भी
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− | ठीक से नहीं देखी मेरी दादी
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− |
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− | कहते हैं पिताजी
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− |
| |
− | ‘माँ सिर्फ़ सपने में ही दिखायी देती हैं वह भी कभी-कभी’
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− |
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− | उस गुवाड़ी से निकलकर मैं जब बाहर आया
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| |
− | तो उस बूढ़ी स्त्री के चेहरे में
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− |
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− | अपनी दादी को खोजते-खोजते
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− |
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− | अपनी बेटी तक चला आया
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− |
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− | जिन्होंने नहीं देखी हैं दादियाँ
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− | उनके घर चली आती हैं दादियाँ
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− | बेटियों की शक्ल में
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− | बस में नींद लेती एक स्त्री
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− | घर से दफ़्तर के स्टाप तक
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− | सिटी बस के चालीस मिनट के सफ़र में सुबह-शाम
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− | पैंतीस मिनट नींद लेती है स्त्री
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− | घर और दफ़्तर ने मिलकर लूट ली है स्त्री की रातों की नींद
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− |
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− | वह स्त्री आराम चाहती है जो सिर्फ़ बस में मिलता है
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− | स्त्री इस नींद भरे सफ़र में ही हासिल कर पाती है
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− | अपने लिए समय
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− | स्त्री के चेहरे पर ग़म या ख़ुशी के कोई निशान नहीं है
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− |
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− | वहाँ एक पथरीली उदासी है
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− |
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− | जो साँवली त्वचा पर बेरुख़ी से चस्पाँ कर दी गई है
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− | उसके एक हाथ की लकीरों में बर्तन माँजने से भरी कालिख़ है
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− |
| |
− | तो दूसरे हाथ में ख़राब समय को दर्शाती पुरानी घड़ी है
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− |
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− | जल्दबाजी में सँवारे गये बालों में अंदाज़ से काढ़ी गई माँग है
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− | और माँग में झुँझलाहट से भरा गया सिंदूर है
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− | आपाधापी से भरी दुनिया में अब
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− |
| |
− | वह भूल चुकी है माँग और सिंदूर के रिश्ते की पुरानी परिभाषा
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− | स्त्री की आँखों में नींद का एक समुद्र है
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− | जिसमें आकण्ठ डूब जाना चाहती है वह
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− | लेकिन घर और दफ़्तर के बीच पसरा हुआ रेगिस्तान
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| |
− | उसकी इच्छाओं को सोख लेता है
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− |
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− | स्त्री इस महान गणतंत्र की सिटी बस में नींद लेती है
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− |
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− | गणतंत्र के पहरुए कृपया उसे डिस्टर्ब न करें
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− | उसे इस हालत तक पहुँचा देने वाले उस पर न हँसें
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− |
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− | उसकी दो वक्तों की नींद
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− | इस महान् लोकतंत्र के बारे में दो गम्भीर टिप्पणियाँ हैं
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− | इन्हें ग़ौर से सुना जाना चाहिए
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− | मलयाली स्त्रियाँ
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− | दो जून भात की तलाश में
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− |
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− | अपना घर-परिवार और
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− | हरा-भरा संसार छोड़कर
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− | रेत के धोरों तक आती हैं
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− | समुद्र की बेटियाँ
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− | भाषाई झगड़ों को भूलकर
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− | बड़ी मेहनत से सीखती हैं हिन्दी
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− | जैसे सीखी थी कभी अंग्रेज़ी
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− | जो यहाँ कम काम आती है
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− | कुछ दिन उन्हें परेशान करती हैं
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| |
− | धूल-भरी आँधियाँ और तपती लू
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− | धीरे-धीरे वे समझ लेती हैं
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− | रेत के समंदर को हिन्द महासागर
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− | चिपरिचित सागर गर्जना से
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| |
− | हजारों कोस दूर वे
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− |
| |
− | कुशल ग़ोताख़ोर की तरह
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− | चुनती रहती हैं
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− | उम्मीद की सीपियाँ
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− | जिनमें से निकलेंगे वे मोती
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− |
| |
− | जिनसे भरा जा सकेगा
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| |
− | मरुथल से सागर तक का फ़ासला
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− | और दोनों वक्त पेट
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− | ये श्यामवर्णी समुद्र की बेटियाँ
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− | अपने केशों में बसी नारियल की गंध से
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− | सुवासित करती रहती हैं
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− | रेगिस्तान की तपती जलवायु
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− | हर पल सजाती रहती हैं
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− | अपनी मेहनत से नखलिस्तान
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− | तुम्हारे जन्मदिन पर
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− | फूलों की घाटी में
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− | प्रकृति ने आज ही खिलाये होंगे
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− | सबसे सुंदर-सुगंधित फूल
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− | आसमान के आईने में
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− | पृथ्वी ने देखा होगा
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− | अपना अद्भुत रूप
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− | पक्षियों ने गाये होंगे
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− | सबसे मीठे गीत
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− | तुम्हारी पहली किलकारी में
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− | कोयल ने जोड़ी होगी अपनी तान
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− | सृष्टि ने उंडेल दिया होगा
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− | अपना सर्वोत्तम रूप
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− | तुम्हारे भीतर
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− | आज ही के दिन
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− | कवियों ने लिखी होंगी
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− | अपनी सर्वश्रेष्ठ कविताएं
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− | संगीतकारों ने रची होगी
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− | अपनी सर्वोत्तम रचनाएं
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− | आज ही के दिन
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− | शिव मुग्ध हुए होंगे
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− | पार्वती के रूप पर
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− | बुद्ध को मिला होगा ज्ञान
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− | फिर से जी उठे होंगे ईसा मसीह
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− | हज़रत मुहम्मद ने दिया होगा पहला उपदेश
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