लेखक: [[Category:हरिवंशराय बच्चन]]
[[Category:कविताएँ]]
[[Category:हरिवंशराय बच्चनरुबाई]]{{KKSandarbh|लेखक=हरिवंशराय बच्चन|पुस्तक=मधुशाला|प्रकाशक=|वर्ष=1935|पृष्ठ=~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~}}
ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला,<br>
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१।<br><br>
मेरे अधरों पर हो अंितम अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला<br>
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,<br>
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना<br>
मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला<br>
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,<br>
दे मुझको वो कान्धा कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों<br>
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।<br><br>
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,<br>
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना<br>
पीने वालांे वालों को बुलवा कऱ कर खुलवा देना मधुशाला।।८४।<br><br>
नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला<br>
ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,<br>
पंिडत पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,<br>
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,<br>
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।<br><br>
अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,<br>
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,<br>
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-िमलते मिलते मधुशाला।।९४।<br><br>
प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,<br>