"रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 4" के अवतरणों में अंतर
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+ | :मेरा स्वरूप विकराल देख। | ||
सब जन्म मुझी से पाते हैं, | सब जन्म मुझी से पाते हैं, | ||
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− | + | :साँसों में पाता जन्म पवन, | |
− | पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, | + | पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, |
+ | :हँसने लगती है सृष्टि उधर! | ||
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन, | मैं जभी मूँदता हूँ लोचन, | ||
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+ | :पहले तो बाँध अनन्त गगन। | ||
सूने को साध न सकता है, | सूने को साध न सकता है, | ||
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याचना नहीं, अब रण होगा, | याचना नहीं, अब रण होगा, | ||
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दुर्योधन! रण ऐसा होगा। | दुर्योधन! रण ऐसा होगा। | ||
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+ | :सौभाग्य मनुज के फूटेंगे। | ||
आखिर तू भूशायी होगा, | आखिर तू भूशायी होगा, | ||
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+ | थी सभा सन्न, सब लोग डरे, | ||
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− | केवल दो नर ना अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। | + | केवल दो नर ना अघाते थे, |
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+ | :धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। | ||
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, | कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, | ||
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दोनों पुकारते थे 'जय-जय'! | दोनों पुकारते थे 'जय-जय'! | ||
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11:29, 22 अगस्त 2008 का अवतरण
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'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
- शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
- शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
'भूलोक, अतल, पाताल देख,
- गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
- यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
- पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
- मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
- साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
- हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
'बाँधने मुझे तो आया है,
- जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
- पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
'हित-वचन नहीं तूने माना,
- मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
- अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
- बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
- विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
'भाई पर भाई टूटेंगे,
- विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
- सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।'
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
- चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
- धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!