दीवानावार दौड़ के कोई लिपट न जाय।
आँखों में आँख डाल के देखा न कीजिए॥
न इन्तक़ाम की आदत न दिल दुखाने की।
बदी भी कर नहीं आती मुझे कुजा नेकी?
अल्लाह री बेताबिये-दिल वस्ल की शब को।
कुछ नींद भी आँखों में है कुछ मय का असर भी॥
वो कश-म-कशे-ग़म है कि मैं कह नहीं सकता।
आग़ाज़ का अफ़्सोस और अन्जाम का डर भी।
कोई बन्दा इश्क़ का है कोई बन्दा अक़्ल का।
पाँव अपने ही न थे क़ाबिल किसी ज़ंजीर के॥
शैतान का शैतान, फ़रिश्ते का फ़रिश्ता।
इन्सान की यह बुलअ़जबी याद रहेगी॥
दिल अपना जलाता हूँ, काबा तो नहीं ढाता।
और आग लगाते हो, क्यों तुहमते-बेजा से॥
बाज़ आ साहिल पै गो़ते खानेवाले बाज़ आ।
डूब मरने का मज़ा दरियाए-बेसाहिल में है।
मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना।
किस मरज़ कि दवा करे कोई॥
हँस भी लेता हूँ ऊपरी दिल से।
जी न बहले तो क्या करे कोई॥
न जाने क्या हो यह दीवाना जिस जगह बैठे।
खुदी के नशे में कुछ अनकही न कह बैठे॥
सुहबते-वाइज़ में भी अँगड़ाइयाँ आने लगीं।
राज़ अपनी मैकशी का क्या कहें क्योंकर खुला॥
रौशन तमाम काबा-ओ-बुतख़ाना हो गया।
घर-घर जमाले-यार का अफ़साना हो गया॥
दयारे-बेख़ुदी है अपने हक़ में गोशये-राहत।
गनीमत है घड़ी भर ख़्वाबे-गफ़लत में बसर होना॥
दिले-आगाह ने बेकार मेरी राह खोटी की।
बहुत अच्छा था अंजामे-सफ़र से बेख़बर होना॥
</poem>