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<poem>कानन दूसरो नाम सुनै नहीं, एक ही रंग रंग्यो यह डोरो।
धोखेहु दूसरो नाम कढ़ै, रसना मुख काहिलाहल काढ़ि हलाहल बोरो॥'ठाकुर ' चित्त की वृत्ति यही, हम कैसें कैसेहूँ टेक तजैं नहिं भोरो।बावरी वे अंखियां अँखियाँ जरि जांहिंजाहिं, जो सांवरो छवि निहारतिं साँवरो छाँड़ि निहारत गोरो॥
</Poem>
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