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एक-एक से बड़े सयानों की ये बस्ती | एक-एक से बड़े सयानों की ये बस्ती | ||
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तेल नहीं उसकीर रहे पर | तेल नहीं उसकीर रहे पर | ||
यों ही बाती | यों ही बाती |
18:10, 19 सितम्बर 2006 का अवतरण
लेखक: नईम
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लिखते कटते हाथ हमारे
किंतु जबां पर आंच न आती।
लिखने कहने में अंतर है
कैसे हैं ये सखा संगाती?
लिखती वही वही जो कहना चाह रहा मैं
दिल-दिमाग़ की रौ में बहना चाह रहा मैं
मन मौलाना की बरात में
कौन घराती? कौन बराती?
कहने-लिखने को दुनिया दो फांक कर रही
किए-धरे को आग लगाकर राख कर रही
परचूनी हाट नहीं थे
और न अपने राम बिसाती।
एक-एक से बड़े सयानों की ये बस्ती
डुबा रहे हैं बड़े-बड़ों के बजरे कश्ती
तेल नहीं उसकीर रहे पर
यों ही बाती