भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"लिखते कटते हाथ हमारे / नईम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 35: पंक्ति 35:
 
एक-एक से बड़े सयानों की ये बस्ती
 
एक-एक से बड़े सयानों की ये बस्ती
  
डुबा रहे हैं बड़े-बड़ों को बजरे कश्ती
+
डुबा रहे हैं बड़े-बड़ों के बजरे कश्ती
  
 
तेल नहीं उसकीर रहे पर
 
तेल नहीं उसकीर रहे पर
  
 
यों ही बाती
 
यों ही बाती

18:10, 19 सितम्बर 2006 का अवतरण

लेखक: नईम

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

लिखते कटते हाथ हमारे

किंतु जबां पर आंच न आती।

लिखने कहने में अंतर है

कैसे हैं ये सखा संगाती?


लिखती वही वही जो कहना चाह रहा मैं

दिल-दिमाग़ की रौ में बहना चाह रहा मैं

मन मौलाना की बरात में

कौन घराती? कौन बराती?


कहने-लिखने को दुनिया दो फांक कर रही

किए-धरे को आग लगाकर राख कर रही

परचूनी हाट नहीं थे

और न अपने राम बिसाती।


एक-एक से बड़े सयानों की ये बस्ती

डुबा रहे हैं बड़े-बड़ों के बजरे कश्ती

तेल नहीं उसकीर रहे पर

यों ही बाती