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दै चारा मुकतानि को, मो चित चली फँदाइ॥ | दै चारा मुकतानि को, मो चित चली फँदाइ॥ | ||
सब जग पेरत तिलन को, थक्यो चित्त यह हेरि। | सब जग पेरत तिलन को, थक्यो चित्त यह हेरि। | ||
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तव कपोल को एक तिल, सब जग डारयो पेरि॥ | तव कपोल को एक तिल, सब जग डारयो पेरि॥ | ||
बेनी तिरबेनी बनी, तहँ बन माघ नहाय। | बेनी तिरबेनी बनी, तहँ बन माघ नहाय। | ||
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इक तिल के आहार तैं, सब दिन रैन बिहाय॥ | इक तिल के आहार तैं, सब दिन रैन बिहाय॥ | ||
हास सतो गुर रज अधर, तिल तम दुति चितरूप | हास सतो गुर रज अधर, तिल तम दुति चितरूप | ||
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मेरे दृग जोगी भये, लये समाधि अनूप॥ | मेरे दृग जोगी भये, लये समाधि अनूप॥ | ||
मोहन काजर काम को, काम दियो तिल तोहि। | मोहन काजर काम को, काम दियो तिल तोहि। | ||
+ | जब जब ऍंखियन में परै, मोंहि तेल मन मोहि॥ | ||
− | + | परी मुबारक तिय बदन,अलक लोप अति होय. | |
+ | मनो चन्द की गोद में,रही निसा सी सोय. | ||
+ | चिबुक कूप में मन परयो,छबि जल तृषा विचारि. | ||
+ | कढ़ति मुबारक ताहि हिय,अलक डोरि सी डारि. | ||
+ | चिबुक कूप रसरी अलक,तिल सु चरस,दृग बैल. | ||
+ | बारी बैस सिंगार को, सींचत मन्मथ छैल. | ||
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16:59, 4 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण
अलक डोर मुख छबि नदी, बेसरि बंसी लाई।
दै चारा मुकतानि को, मो चित चली फँदाइ॥
सब जग पेरत तिलन को, थक्यो चित्त यह हेरि।
तव कपोल को एक तिल, सब जग डारयो पेरि॥
बेनी तिरबेनी बनी, तहँ बन माघ नहाय।
इक तिल के आहार तैं, सब दिन रैन बिहाय॥
हास सतो गुर रज अधर, तिल तम दुति चितरूप
मेरे दृग जोगी भये, लये समाधि अनूप॥
मोहन काजर काम को, काम दियो तिल तोहि।
जब जब ऍंखियन में परै, मोंहि तेल मन मोहि॥
परी मुबारक तिय बदन,अलक लोप अति होय.
मनो चन्द की गोद में,रही निसा सी सोय.
चिबुक कूप में मन परयो,छबि जल तृषा विचारि.
कढ़ति मुबारक ताहि हिय,अलक डोरि सी डारि.
चिबुक कूप रसरी अलक,तिल सु चरस,दृग बैल.
बारी बैस सिंगार को, सींचत मन्मथ छैल.