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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''अकाल-दर्शन<br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''तुम कब जानोगे?<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[धूमिल]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शमशाद इलाही अंसारी]]</td>
 
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भूख कौन उपजाता है :
+
<poem>
वह इरादा जो तरह देता है
+
तुम कब जानोगे?
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
+
तुम पीछे छोड गए थे
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?
+
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
 +
घुटनों-घुटनों ख़ून में लथपथ
 +
अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच
 +
दमघोटूँ धुएँ से भरी उन गलियों में
 +
जिन्हें दौड कर पार करने में वह समर्थ न था।
 +
 +
नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में
 +
मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के
 +
डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे।
 +
 +
दूषित नारों के व्यापारियों ने
 +
विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर
 +
जो ख्वाब तुम्हारी आँखों में भर दिए थे
 +
तुम्हें उन्हें जीना था, लेकिन
 +
तुम पीछे छोड गए थे
 +
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
 +
उसके आधे परिवार के साथ...
 +
 +
मैं पूछ्ता हूँ तुमसे
 +
आख़िर क्या हासिल हुआ तुम्हें
 +
उन कथित नए नारों से
 +
नया देश, नए रास्ते और नए इतिहास से
 +
जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से
 +
और मुशर्रफ़ तक जाता।
  
उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
+
पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल
नहीं दिया।
+
युद्ध,चन्द धमाके और बामियान में बुद्ध की हत्या।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
+
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
+
तुम कब जानोगे
और हँसने लगा।
+
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
 +
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं।
 +
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
 +
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं।
 +
 +
तुम कब जानोगे
 +
कि तुम्हारे गहरे हरे रंग छाप नारों की
 +
प्रतिध्वनि मेरे घर में भगवा गर्म करती है।
 +
जो घर परिवार तुम बेसहारा, लाचार, जर्जर
 +
पीछे छोड कर गए थे
 +
वहाँ भी कभी-कभी त्रिशूल का भय सताता है।
 +
तुम्हारे गहरे हरे रंग ने  
 +
भगवे का रंग भी गहरा कर दिया है।
 +
 +
तुम कब जानोगे
 +
कि वह ऐतिहासिक ऊर्जा
 +
जो विघटन का कारण बनी
 +
वह नए भारत की संजीवनी बन सकती थी
 +
जो लोग परस्पर हत्याएँ कर रहे थे
 +
वे बंजर ज़मीन को सब्ज़ बना सकते थे
 +
कल-कारखाने चला सकते थे
 +
निर्माण के विशाल पर्वत पर चढ़ कर
 +
संसार को बता सकते थे कि यह है
 +
एक विकसित, जनतांत्रिक,सभ्य, विशाल हिंदुस्तान
 +
 +
तुक कब जानोगे
 +
कि तुम्हारे बिना यह कार्य अब तक अधूरा है
 +
अधर में लटका है क्योंकि
 +
तुम पीछे छोड़ गए थे
 +
मेरे बिलखते मासूम पिता को
 +
 +
तुम कब जानोगे
 +
कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ
 +
हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे
 +
गंगा का जमुना से जुड़ने का रहस्य
 +
बुद्ध का मौन और महावीर की करुणा
 +
कबीर के दोहे, खुसरो की रुबाइयाँ
 +
मंदिर में वंदना और मस्जिदों में इबादत
 +
तुम कैसे समझोगे ?
 +
क्योंकि तुमने इस धरती की तमाम मनीषा के विपरीत
 +
सरहदें चिंतन में भी बनाई थी
 +
 +
तुम कब जानोगे
 +
कि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच
 +
अब ख़ुद तुमसे मुक्त हो चुका है
 +
वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि
 +
तुम पीछे छोड़ गए थे
 +
मेरे बिलखते मासूम पिता को
 +
 +
तुम कब जानोगे
 +
कि अतीत असीम, अमर और अविभाज्य है
 +
वह सत्य की भांति पवित्र है
 +
कब तक झुठलाओगे उसे
 +
कितनी नस्लें और भोगेंगी
 +
तुम्हारे इतिहास के कदाचार को
  
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
+
क्यों नहीं बताते उन्हें
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
+
कि हम सब एक ही थे
इससे वे भी सहमत हैं
+
हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
+
मोहन जोदडो में
रसद देते हैं।
+
सिन्धु सभ्यता के आदिम मकान
उनका कहना है कि बच्चे
+
हमने ही बनाये थे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।
+
हमने ही रची थी वेदों की ऋचाएँ
 +
हम सब थे महाभारत
 +
हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर
 +
हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम
 +
हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें
 +
 +
तुम कब जानोगे
 +
कि झूठ के पैर नहीं होते
 +
झूठ को नहीं मिलती अमरता
 +
तुम्हारे हर घर में रफ़ी की आवाज़
 +
मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता
 +
कृष्ण की बाँसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें
 +
हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा
 +
तुम्हारे झूठ से बड़ा सच
 +
और क्या हो सकता है
 +
 +
तुम कब मानोगे
 +
कि तुम सब कुछ जानते हो
 +
सियासी फ़रेब की रेत में
 +
दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद
 +
सच की आंधी में
 +
बर्लिन की दीवार की भाँति
 +
कभी भी ढह सकता है।
 +
 +
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद
 +
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें
 +
नपुंसक बन सकती हैं  
 +
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून
 +
कभी भी मांग सकता है हिसाब
 +
उजडे़ घरों की बद-दुआयें
 +
अपना असर दिखा सकती हैं, क्योंकि
 +
तुम पीछे छोड गये थे
 +
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
 +
 +
तुम कब जानोगे
 +
कि हम भी खतावार हैं
 +
हमने भी चली हैं सियासी चालें
 +
हमने भी तोडी हैं कसमें
 +
हमें भी बतानी हैं गांधी की जवानी की भूलें
 +
समझनी है जिन्नाह की नादानी
 +
नौसिखिया कांग्रेस की झूठी मर्दानगी
 +
अंग्रेज़ों की घोडे़ की चाल, शह-मात का खेल
 +
फ़ैज़, फ़राज़,जोश,जालिब का दर्द
 +
और ज़फ़र के बिखरे ख्वाब, क्योंकि
 +
तुम पीछे छोड गये थे
 +
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
 +
 +
तुम कब जानोगे
 +
कि मेरे पिता कई बरस हुए गुज़र गए हैं
 +
खुली आँखों में ख्वाब और आस लिए  
 +
कि तुम लौट आओगे
 +
उनका वो जुमला मुझे भी कचोटता है  
 +
"जो छोड़ कर गया है, उसे ही लौटना होगा"
  
लेकिन यही वे भूलते हैं
+
मैनें जब से होश सम्भाला है
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
+
मैं भी यही दोहराता हूँ
हमारे अपराध फूलते हैं
+
मेरे बच्चे भी अब हो गये हैं जवान
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
+
वो भी सवाल करते हैं  
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
+
नई रोशनी, नई तर्ज़, नई समझ के साथ
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
+
'जनता के हित में' स्थानांतरित
+
हो गया।
+
  
मैंने खुद को समझाया – यार!
+
तुम्हारे यहाँ भी यही है हाल
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
+
आज नहीं तो कल ये शोर और तेज़ होगा
क्यों झिझकते हो?
+
जवान नस्लें जायज़ सवाल पूछेंगी
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
+
हज़ारों बरस के साझें चूल्हे?  
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
+
पचास साठ बरस की अलहदगी?  
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।
+
तुम्हें देने होंगे जवाब क्योंकि
 +
तुम पीछे छोड गए थे
 +
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
 +
 +
तुम कब जानोगे
 +
कि पीछे छुटे,जले,बिखरे,टूटे घर
 +
फ़िर आबाद हो गए हैं
 +
वहाँ फ़िर से बस गए हैं
 +
बचपन की किलकारियाँ,
 +
जवानी की रौनक
 +
और बुढा़पे का वैभव
 +
तुम्हारा पलंग, तुम्हारी कुर्सी
 +
तुम्हारी किताबें, तुम्हारे ख़त
 +
तुम्हारी गलियाँ, वो छत
 +
और आम जामुन के पेड़
 +
सभी कुछ का़यम हैं प्रतीक्षारत है
 +
 +
तुम्हें वापस आना होगा
 +
तुम्हें ही लौटना होगा क्योंकि
 +
तुम्ही तो छोडकर गये थे
 +
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
 +
बासठ बरस पूर्व
  
और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
 
सामने खड़ा हूँ और
 
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
 
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
 
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
 
बदल रहा है।
 
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
 
पत्ते और छाल
 
खा रहे हैं
 
मर रहे हैं, दान
 
कर रहे हैं।
 
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
 
हिस्सा ले रहे हैं और
 
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
 
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
 
  
मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
+
'''रचनाकाल : 13.08.2009
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
+
'''भारत-पाक विभाजन की 62वीं वर्षगाँठ की पूर्व संध्या पर  
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
+
अँगुली रखने से मना करते हैं।
+
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
+
भेड़ियों ने खा लिया है
+
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
+
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'
+
 
+
बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
+
यह दूसरी बात है कि इस बार
+
उन्हें पानी ने मारा है।
+
 
+
मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
+
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
+
नहीं समझते
+
जो पूरे समुदाय से
+
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
+
कभी 'गाय' से
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कभी 'हाथ' से
+
 
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'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
+
मैं उन्हें समझाता हूँ –
+
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
+
कि जिस उम्र में
+
मेरी माँ का चेहरा
+
झुर्रियों की झोली बन गया है
+
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
+
के चेहरे पर
+
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
+
लोच है।
+
 
+
ले चुपचाप सुनते हैं।
+
उनकी आँखों में विरक्ति है :
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पछतावा है;
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संकोच है
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या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
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वे इस कदर पस्त हैं :
+
 
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कि तटस्थ हैं।
+
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
+
एकता युद्ध की और दया
+
अकाल की पूंजी है।
+
क्रान्ति –
+
यहाँ के असंग लोगों के लिए
+
किसी अबोध बच्चे के –
+
हाथों की जूजी है।
+
 
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12:29, 21 अगस्त 2009 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: तुम कब जानोगे?
  रचनाकार: शमशाद इलाही अंसारी
<poem>
तुम कब जानोगे?
तुम पीछे छोड गए थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को 
घुटनों-घुटनों ख़ून में लथपथ 
अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच 
दमघोटूँ धुएँ से भरी उन गलियों में 
जिन्हें दौड कर पार करने में वह समर्थ न था।
 
नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में 
मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के 
डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे। 
 
दूषित नारों के व्यापारियों ने 
विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर 
जो ख्वाब तुम्हारी आँखों में भर दिए थे 
तुम्हें उन्हें जीना था, लेकिन 
तुम पीछे छोड गए थे 
मेरे बिलखते,मासूम पिता को 
उसके आधे परिवार के साथ... 
 
मैं पूछ्ता हूँ तुमसे 
आख़िर क्या हासिल हुआ तुम्हें 
उन कथित नए नारों से 
नया देश, नए रास्ते और नए इतिहास से 
जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से 
और मुशर्रफ़ तक जाता। 

पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल 
युद्ध,चन्द धमाके और बामियान में बुद्ध की हत्या। 
 
तुम कब जानोगे 
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है 
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं। 
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव 
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं। 
 
तुम कब जानोगे 
कि तुम्हारे गहरे हरे रंग छाप नारों की 
प्रतिध्वनि मेरे घर में भगवा गर्म करती है। 
जो घर परिवार तुम बेसहारा, लाचार, जर्जर 
पीछे छोड कर गए थे 
वहाँ भी कभी-कभी त्रिशूल का भय सताता है।
तुम्हारे गहरे हरे रंग ने 
भगवे का रंग भी गहरा कर दिया है। 
 
तुम कब जानोगे 
कि वह ऐतिहासिक ऊर्जा 
जो विघटन का कारण बनी 
वह नए भारत की संजीवनी बन सकती थी 
जो लोग परस्पर हत्याएँ कर रहे थे 
वे बंजर ज़मीन को सब्ज़ बना सकते थे 
कल-कारखाने चला सकते थे 
निर्माण के विशाल पर्वत पर चढ़ कर 
संसार को बता सकते थे कि यह है 
एक विकसित, जनतांत्रिक,सभ्य, विशाल हिंदुस्तान 
 
तुक कब जानोगे 
कि तुम्हारे बिना यह कार्य अब तक अधूरा है 
अधर में लटका है क्योंकि 
तुम पीछे छोड़ गए थे 
मेरे बिलखते मासूम पिता को 
 
तुम कब जानोगे 
कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ 
हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे 
गंगा का जमुना से जुड़ने का रहस्य 
बुद्ध का मौन और महावीर की करुणा 
कबीर के दोहे, खुसरो की रुबाइयाँ 
मंदिर में वंदना और मस्जिदों में इबादत 
तुम कैसे समझोगे ? 
क्योंकि तुमने इस धरती की तमाम मनीषा के विपरीत 
सरहदें चिंतन में भी बनाई थी 
 
तुम कब जानोगे 
कि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच 
अब ख़ुद तुमसे मुक्त हो चुका है 
वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि 
तुम पीछे छोड़ गए थे 
मेरे बिलखते मासूम पिता को 
 
तुम कब जानोगे 
कि अतीत असीम, अमर और अविभाज्य है 
वह सत्य की भांति पवित्र है 
कब तक झुठलाओगे उसे 
कितनी नस्लें और भोगेंगी 
तुम्हारे इतिहास के कदाचार को 

क्यों नहीं बताते उन्हें 
कि हम सब एक ही थे 
हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल 
मोहन जोदडो में 
सिन्धु सभ्यता के आदिम मकान 
हमने ही बनाये थे 
हमने ही रची थी वेदों की ऋचाएँ 
हम सब थे महाभारत 
हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर 
हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम 
हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें 
 
तुम कब जानोगे 
कि झूठ के पैर नहीं होते 
झूठ को नहीं मिलती अमरता 
तुम्हारे हर घर में रफ़ी की आवाज़ 
मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता 
कृष्ण की बाँसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें 
हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा 
तुम्हारे झूठ से बड़ा सच 
और क्या हो सकता है 
 
तुम कब मानोगे 
कि तुम सब कुछ जानते हो 
सियासी फ़रेब की रेत में 
दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद 
सच की आंधी में 
बर्लिन की दीवार की भाँति 
कभी भी ढह सकता है।
 
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद 
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें 
नपुंसक बन सकती हैं 
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून 
कभी भी मांग सकता है हिसाब 
उजडे़ घरों की बद-दुआयें 
अपना असर दिखा सकती हैं, क्योंकि 
तुम पीछे छोड गये थे 
मेरे बिलखते मासूम पिता को.. 
 
तुम कब जानोगे 
कि हम भी खतावार हैं 
हमने भी चली हैं सियासी चालें 
हमने भी तोडी हैं कसमें 
हमें भी बतानी हैं गांधी की जवानी की भूलें 
समझनी है जिन्नाह की नादानी 
नौसिखिया कांग्रेस की झूठी मर्दानगी 
अंग्रेज़ों की घोडे़ की चाल, शह-मात का खेल 
फ़ैज़, फ़राज़,जोश,जालिब का दर्द 
और ज़फ़र के बिखरे ख्वाब, क्योंकि 
तुम पीछे छोड गये थे 
मेरे बिलखते मासूम पिता को.. 
 
तुम कब जानोगे 
कि मेरे पिता कई बरस हुए गुज़र गए हैं 
खुली आँखों में ख्वाब और आस लिए 
कि तुम लौट आओगे 
उनका वो जुमला मुझे भी कचोटता है 
"जो छोड़ कर गया है, उसे ही लौटना होगा" 

मैनें जब से होश सम्भाला है 
मैं भी यही दोहराता हूँ 
मेरे बच्चे भी अब हो गये हैं जवान 
वो भी सवाल करते हैं 
नई रोशनी, नई तर्ज़, नई समझ के साथ 

तुम्हारे यहाँ भी यही है हाल 
आज नहीं तो कल ये शोर और तेज़ होगा 
जवान नस्लें जायज़ सवाल पूछेंगी 
हज़ारों बरस के साझें चूल्हे? 
पचास साठ बरस की अलहदगी? 
तुम्हें देने होंगे जवाब क्योंकि 
तुम पीछे छोड गए थे 
मेरे बिलखते मासूम पिता को.. 
 
तुम कब जानोगे 
कि पीछे छुटे,जले,बिखरे,टूटे घर 
फ़िर आबाद हो गए हैं 
वहाँ फ़िर से बस गए हैं 
बचपन की किलकारियाँ, 
जवानी की रौनक 
और बुढा़पे का वैभव 
तुम्हारा पलंग, तुम्हारी कुर्सी 
तुम्हारी किताबें, तुम्हारे ख़त 
तुम्हारी गलियाँ, वो छत 
और आम जामुन के पेड़ 
सभी कुछ का़यम हैं प्रतीक्षारत है
 
तुम्हें वापस आना होगा 
तुम्हें ही लौटना होगा क्योंकि 
तुम्ही तो छोडकर गये थे 
मेरे बिलखते मासूम पिता को.. 
बासठ बरस पूर्व 


'''रचनाकाल : 13.08.2009
'''भारत-पाक विभाजन की 62वीं वर्षगाँठ की पूर्व संध्या पर