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<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
 
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''तुम कब जानोगे?<br>
+
<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''मुसलमान<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शमशाद इलाही अंसारी]]</td>
+
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[देवी प्रसाद मिश्र]]</td>
 
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
तुम कब जानोगे?
+
कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
तुम पीछे छोड गए थे
+
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
+
वे व्याधि थे
घुटनों-घुटनों ख़ून में लथपथ
+
अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच
+
दमघोटूँ धुएँ से भरी उन गलियों में
+
जिन्हें दौड कर पार करने में वह समर्थ न था।
+
+
नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में
+
मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के
+
डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे।
+
+
दूषित नारों के व्यापारियों ने
+
विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर
+
जो ख्वाब तुम्हारी आँखों में भर दिए थे  
+
तुम्हें उन्हें जीना था, लेकिन
+
तुम पीछे छोड गए थे
+
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
+
उसके आधे परिवार के साथ...
+
+
मैं पूछ्ता हूँ तुमसे
+
आख़िर क्या हासिल हुआ तुम्हें
+
उन कथित नए नारों से
+
नया देश, नए रास्ते और नए इतिहास से
+
जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से
+
और मुशर्रफ़ तक जाता।
+
  
पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल
+
ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे
युद्ध,चन्द धमाके और बामियान में बुद्ध की हत्या।
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
+
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं।
+
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
+
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं।
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि तुम्हारे गहरे हरे रंग छाप नारों की
+
प्रतिध्वनि मेरे घर में भगवा गर्म करती है।
+
जो घर परिवार तुम बेसहारा, लाचार, जर्जर
+
पीछे छोड कर गए थे  
+
वहाँ भी कभी-कभी त्रिशूल का भय सताता है।
+
तुम्हारे गहरे हरे रंग ने
+
भगवे का रंग भी गहरा कर दिया है।
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि वह ऐतिहासिक ऊर्जा
+
जो विघटन का कारण बनी
+
वह नए भारत की संजीवनी बन सकती थी
+
जो लोग परस्पर हत्याएँ कर रहे थे
+
वे बंजर ज़मीन को सब्ज़ बना सकते थे
+
कल-कारखाने चला सकते थे
+
निर्माण के विशाल पर्वत पर चढ़ कर
+
संसार को बता सकते थे कि यह है
+
एक विकसित, जनतांत्रिक,सभ्य, विशाल हिंदुस्तान
+
+
तुक कब जानोगे
+
कि तुम्हारे बिना यह कार्य अब तक अधूरा है
+
अधर में लटका है क्योंकि
+
तुम पीछे छोड़ गए थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ
+
हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे
+
गंगा का जमुना से जुड़ने का रहस्य
+
बुद्ध का मौन और महावीर की करुणा
+
कबीर के दोहे, खुसरो की रुबाइयाँ
+
मंदिर में वंदना और मस्जिदों में इबादत
+
तुम कैसे समझोगे ?
+
क्योंकि तुमने इस धरती की तमाम मनीषा के विपरीत
+
सरहदें चिंतन में भी बनाई थी
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच
+
अब ख़ुद तुमसे मुक्त हो चुका है
+
वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि
+
तुम पीछे छोड़ गए थे  
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि अतीत असीम, अमर और अविभाज्य है
+
वह सत्य की भांति पवित्र है
+
कब तक झुठलाओगे उसे
+
कितनी नस्लें और भोगेंगी
+
तुम्हारे इतिहास के कदाचार को
+
  
क्यों नहीं बताते उन्हें
+
वे मुसलमान थे
कि हम सब एक ही थे  
+
हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल
+
मोहन जोदडो में
+
सिन्धु सभ्यता के आदिम मकान
+
हमने ही बनाये थे
+
हमने ही रची थी वेदों की ऋचाएँ
+
हम सब थे महाभारत
+
हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर
+
हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम
+
हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि झूठ के पैर नहीं होते
+
झूठ को नहीं मिलती अमरता
+
तुम्हारे हर घर में रफ़ी की आवाज़
+
मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता
+
कृष्ण की बाँसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें
+
हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा
+
तुम्हारे झूठ से बड़ा सच
+
और क्या हो सकता है
+
+
तुम कब मानोगे
+
कि तुम सब कुछ जानते हो
+
सियासी फ़रेब की रेत में
+
दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद
+
सच की आंधी में
+
बर्लिन की दीवार की भाँति
+
कभी भी ढह सकता है।
+
+
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद
+
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें
+
नपुंसक बन सकती हैं
+
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून
+
कभी भी मांग सकता है हिसाब
+
उजडे़ घरों की बद-दुआयें
+
अपना असर दिखा सकती हैं, क्योंकि
+
तुम पीछे छोड गये थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि हम भी खतावार हैं
+
हमने भी चली हैं सियासी चालें
+
हमने भी तोडी हैं कसमें
+
हमें भी बतानी हैं गांधी की जवानी की भूलें
+
समझनी है जिन्नाह की नादानी
+
नौसिखिया कांग्रेस की झूठी मर्दानगी
+
अंग्रेज़ों की घोडे़ की चाल, शह-मात का खेल
+
फ़ैज़, फ़राज़,जोश,जालिब का दर्द
+
और ज़फ़र के बिखरे ख्वाब, क्योंकि
+
तुम पीछे छोड गये थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि मेरे पिता कई बरस हुए गुज़र गए हैं
+
खुली आँखों में ख्वाब और आस लिए
+
कि तुम लौट आओगे
+
उनका वो जुमला मुझे भी कचोटता है
+
"जो छोड़ कर गया है, उसे ही लौटना होगा"
+
  
मैनें जब से होश सम्भाला है
+
उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
मैं भी यही दोहराता हूँ
+
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!
मेरे बच्चे भी अब हो गये हैं जवान
+
वो भी सवाल करते हैं
+
नई रोशनी, नई तर्ज़, नई समझ के साथ
+
  
तुम्हारे यहाँ भी यही है हाल
+
बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
आज नहीं तो कल ये शोर और तेज़ होगा
+
नदी का नाम दिया
जवान नस्लें जायज़ सवाल पूछेंगी
+
हज़ारों बरस के साझें चूल्हे?
+
पचास साठ बरस की अलहदगी?
+
तुम्हें देने होंगे जवाब क्योंकि
+
तुम पीछे छोड गए थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि पीछे छुटे,जले,बिखरे,टूटे घर
+
फ़िर आबाद हो गए हैं
+
वहाँ फ़िर से बस गए हैं
+
बचपन की किलकारियाँ,
+
जवानी की रौनक
+
और बुढा़पे का वैभव
+
तुम्हारा पलंग, तुम्हारी कुर्सी
+
तुम्हारी किताबें, तुम्हारे ख़त
+
तुम्हारी गलियाँ, वो छत
+
और आम जामुन के पेड़
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सभी कुछ का़यम हैं प्रतीक्षारत है
+
+
तुम्हें वापस आना होगा
+
तुम्हें ही लौटना होगा क्योंकि
+
तुम्ही तो छोडकर गये थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
+
बासठ बरस पूर्व
+
  
 +
वे हर गहरी और अविरल नदी को
 +
पार करना चाहते थे
  
'''रचनाकाल : 13.08.2009
+
वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
'''भारत-पाक विभाजन की 62वीं वर्षगाँठ की पूर्व संध्या पर  
+
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
 +
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे
 +
 
 +
उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
 +
चलने की
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ठहरने की
 +
पिटने की
 +
और मृत्यु की
 +
 
 +
प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
 +
और अपने ख़ून में कन्धों तक
 +
वे डूबे होते थे
 +
उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
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और म्यानों में सभ्यता के
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नक्शे होते थे
 +
 
 +
न! मृत्यु के लिए नहीं
 +
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे
 +
 
 +
वे मुसलमान थे
 +
 
 +
वे फ़ारस से आए
 +
तूरान से आए
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समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
 +
तुर्किस्तान से आए
 +
 
 +
वे बहुत दूर से आए
 +
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
 +
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे
 +
 
 +
वे मुसलमान थे
 +
 
 +
वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
 +
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
 +
हूबहू
 +
 
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वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
 +
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं
 +
 
 +
वे घोड़ों के साथ सोते थे
 +
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
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निर्माण के लिए वे बेचैन थे
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वे मुसलमान थे
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यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
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तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए
 +
 
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कि वे प्रायः इस तरह होते थे
 +
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
 +
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे
 +
 
 +
वे मुसलमान थे
 +
 
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वे न होते तो लखनऊ न होता
 +
आधा इलाहाबाद न होता
 +
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
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आदाब न होता
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मीर मक़दूम मोमिन न होते
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शबाना न होती
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वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
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वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
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वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता
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मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता
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वे थे तो चचा हसन थे
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वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
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वे मुसलमान थे
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वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
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और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे
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वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
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वे सोचते थे और सोचकर डरते थे
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इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
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वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे
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वे जितना पी०ए०सी० के सिपाही से डरते थे
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उतना ही राम से
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वे मुरादाबाद से डरते थे
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वे मेरठ से डरते थे
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वे भागलपुर से डरते थे
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वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे
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वे पवित्र रंगों से डरते थे
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वे अपने मुसलमान होने से डरते थे
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वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
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देश को लेकर देश में
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ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे
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वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे
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वे मुसलमान थे
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वे कपड़े बुनते थे
 +
वे कपड़े सिलते थे
 +
वे ताले बनाते थे
 +
वे बक्से बनाते थे
 +
उनके श्रम की आवाज़ें
 +
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं
 +
 
 +
वे शहर के बाहर रहते थे
 +
 
 +
वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
 +
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
 +
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे
 +
 
 +
वे मुसलमान थे
 +
 
 +
वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
 +
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
 +
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
 +
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
 +
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
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ख़बरें आती थीं
 +
 
 +
उनकी औरतें
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बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
 +
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
 +
वे मुसलमान थे
 +
 
 +
वे मुसलमान थे इसलिए
 +
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे
 +
 
 +
वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
 +
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार
 +
सिर पटकते थे
 +
वे मुसलमान थे
 +
 
 +
वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
 +
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
 +
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
 +
कुव्वत-उल-इस्लाम है
 +
इस्लाम की ताक़त है
 +
 
 +
अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
 +
वे मुसलमान थे
 +
 
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वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
 +
लेकिन नहीं जा सकते थे
 +
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
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तो नहीं रह सकते थे
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वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे
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 +
वे मुसलमान थे इसलिए
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तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
 +
एक दूसरे को भींचे रहते थे
 +
 
 +
कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
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उन्हें फेंका जाए तो
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किस समुद्र में फेंका जाए
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बहस यह थी
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कि उन्हें धकेला जाए
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तो किस पहाड़ से धकेला जाए
 +
 
 +
वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
 +
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे
 +
 
 +
सावधान!
 +
सिन्धु के दक्षिण में
 +
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
 +
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे
 +
 
 +
वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
 +
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
 +
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
 +
उस तरह वे सच थे
 +
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
 +
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे
 +
 
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वे मुसलमान थे
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वे मुसलमान थे
 +
वे मुसलमान थे
 
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23:33, 30 अगस्त 2009 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: मुसलमान
  रचनाकार: देवी प्रसाद मिश्र
कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे

उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की 
और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
और अपने ख़ून में कन्धों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के 
नक्शे होते थे

न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे

वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए

वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे

वे मुसलमान थे


यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्रायः इस तरह होते थे
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे

वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता

मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे

वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे

इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे

वे जितना पी०ए०सी० के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे

वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे

वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे
वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें 
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
ख़बरें आती थीं

उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे

वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार 
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे

वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे

वे मुसलमान थे इसलिए
तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
उन्हें फेंका जाए तो 
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे

सावधान!
सिन्धु के दक्षिण में
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे