"तुम मुझे क्षमा करो / राजकमल चौधरी" के अवतरणों में अंतर
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नहीं कर पाई तय वे पद-चिन्ह। | नहीं कर पाई तय वे पद-चिन्ह। | ||
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सजाया था अकारण, उस दिन | सजाया था अकारण, उस दिन | ||
अनाधार। | अनाधार। | ||
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नहीं बन सकीं | नहीं बन सकीं | ||
गान, | गान, | ||
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तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया। | तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया। | ||
उम्र की मखमली कालीनों पर हम साथ नहीं चले | उम्र की मखमली कालीनों पर हम साथ नहीं चले | ||
− | हमने | + | हमने पाँवों से बहारों के कभी फूल नहीं कुचले |
तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे | तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे | ||
उगाते रहे फफोले | उगाते रहे फफोले | ||
मैं नदी डरती रही हर रात! | मैं नदी डरती रही हर रात! | ||
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा। | तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा। | ||
− | + | वक़्त के सरगम पर हमने नए राग नहीं बोए-काटे | |
गीत से जीवन के सूखे हुए सरोवर नहीं पाटे | गीत से जीवन के सूखे हुए सरोवर नहीं पाटे | ||
− | हमारी | + | हमारी आवाज़ से चमन तो क्या |
− | + | काँपी नहीं वह डाल भी, जिस पर बैठे थे कभी! | |
− | तुमने | + | तुमने ख़ामोशी को इर्द-गिर्द लपेट लिया |
मैं लिपटी हुई सोई रही। | मैं लिपटी हुई सोई रही। | ||
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया | तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया | ||
क्योंकि, मैं हरदम तुम्हारे साथ थी, | क्योंकि, मैं हरदम तुम्हारे साथ थी, | ||
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा | तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा | ||
− | क्योंकि हमारी | + | क्योंकि हमारी ज़िन्दगी से बेहतर कोई संगीत न था, |
(क्या है, जो हम यह संगीत कभी सुन न सके!) | (क्या है, जो हम यह संगीत कभी सुन न सके!) | ||
मैं तुम्हारा कोई सपना नहीं थी, सच्चाई थी! | मैं तुम्हारा कोई सपना नहीं थी, सच्चाई थी! | ||
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21:47, 31 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।
मुस्कुराहटें मेरी विवश
किसी भी चंद्रमा के चतुर्दिक
उगा नहीं पाई आकाश-गंगा
लगातार फूल-
चंद्रमुखी!
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।
मुस्कुराहटें मेरी विकल
नहीं कर पाई तय वे पद-चिन्ह।
मेरे प्रति तुम्हारी राग-अस्थिरता,
अपराध-आकांक्षा ने
विस्मय ने-जिन्हें,
काल के सीमाहीन मरुथल पर
सजाया था अकारण, उस दिन
अनाधार।
मेरी प्रार्थनाएँ तुम्हारे लिए
नहीं बन सकीं
गान,
मुझे क्षमा करो।
मैं एक सच्चाई थी
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया।
उम्र की मखमली कालीनों पर हम साथ नहीं चले
हमने पाँवों से बहारों के कभी फूल नहीं कुचले
तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे
उगाते रहे फफोले
मैं नदी डरती रही हर रात!
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा।
वक़्त के सरगम पर हमने नए राग नहीं बोए-काटे
गीत से जीवन के सूखे हुए सरोवर नहीं पाटे
हमारी आवाज़ से चमन तो क्या
काँपी नहीं वह डाल भी, जिस पर बैठे थे कभी!
तुमने ख़ामोशी को इर्द-गिर्द लपेट लिया
मैं लिपटी हुई सोई रही।
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया
क्योंकि, मैं हरदम तुम्हारे साथ थी,
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा
क्योंकि हमारी ज़िन्दगी से बेहतर कोई संगीत न था,
(क्या है, जो हम यह संगीत कभी सुन न सके!)
मैं तुम्हारा कोई सपना नहीं थी, सच्चाई थी!