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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनेश सिंह
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<poem>
लो वही हुआ जिसका था ड़रडरना रही नदी, ना रही लहर।लहर ।
सूरज की किरन दहाड़ गई
गरमी हर देह उघाड़ गई
उठ गया बवंड़रबवण्डर, धूल हवा मेंअपना झंडा़ झंडा गाड़ गईगौरइया हाँफ रही ड़र करडरकरना रही नदी, ना रही लहर।लहर ।
हर ओर उमस के चर्चे हैं
बिजली पंखों पँखों के खर्चे हैं
बूढे महुए के हाथों से,
उड़ रहे हवा में पर्चे हैं
"चलना साथी लू से बचकर"
ना रही नदी, ना रही लहर।लहर ।
संकल्प हिमालय सा गलता
सारा दिन भट्ठी सा जलता
मन भरे हुए, सब ड़रे डरे हुए
किस की हिम्मत बाहर हिलता
है खडा़ खड़ा सूर्य सर के ऊपरना रही नदी, ना रही लहर।लहर ।
बोझिल रातों के मध्य पहर
इन तपी हुई दीवारों पर
क्या बाँचूँ सब थोथे आखर
ना रही नदी, ना रही लहर।लहर ।
</poem>
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