भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नई आवाज / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" }} <poem> कभी की जा चुकीं नीचे यह...)
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
 
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
 +
|संग्रह=धूप और धुआँ / रामधारी सिंह "दिनकर"
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
 
कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,  
 
कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,  
पंक्ति 12: पंक्ति 14:
 
कहे क्या चाँद ? उसके पास कोई बात भी हो।  
 
कहे क्या चाँद ? उसके पास कोई बात भी हो।  
 
निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की ?  
 
निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की ?  
यहाँ पर भी नहीं यह राज़ कोई जानता है।  
+
::यहाँ पर भी नहीं यह राज़ कोई जानता है।  
  
 
[2]
 
[2]
पंक्ति 19: पंक्ति 21:
 
तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है।  
 
तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है।  
 
मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,  
 
मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,  
नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है ?
+
::नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है ?
  
 
[3]
 
[3]
पंक्ति 26: पंक्ति 28:
 
नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।  
 
नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।  
 
मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह,  
 
मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह,  
किरण को ढूँढता लेकिन, नहीं पहचानता है।  
+
::किरण को ढूँढता लेकिन, नहीं पहचानता है।  
  
 
[4]
 
[4]
पंक्ति 33: पंक्ति 35:
 
नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।  
 
नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।  
 
कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की,  
 
कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की,  
शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है ?
+
::शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है ?
  
 
[5]
 
[5]
पंक्ति 40: पंक्ति 42:
 
कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;  
 
कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;  
 
नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर ?  
 
नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर ?  
वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।  
+
::वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।  
  
 
[6]
 
[6]
पंक्ति 47: पंक्ति 49:
 
जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं ?
 
जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं ?
 
बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,  
 
बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,  
उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है ?
+
::उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है ?
  
 
[7]
 
[7]
पंक्ति 54: पंक्ति 56:
 
रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।  
 
रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।  
 
सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,  
 
सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,  
गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।
+
::गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।
 
</poem>
 
</poem>

18:57, 21 नवम्बर 2009 का अवतरण

कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,
नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है ?

[1]

बताएँ भेद क्या तारे ? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो,
कहे क्या चाँद ? उसके पास कोई बात भी हो।
निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की ?
यहाँ पर भी नहीं यह राज़ कोई जानता है।

[2]

सनातन है, अचल है, स्वर्ग चलता ही नहीं है;
तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है।
मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,
नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है ?

[3]

धुओं का देश है नादान ! यह छलना बड़ी है,
नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।
मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह,
किरण को ढूँढता लेकिन, नहीं पहचानता है।

[4]

गगन में तो नहीं बाकी, जरा कुछ है असल में,
नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।
कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की,
शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है ?

[5]

नया स्वर खोजनेवाले ! तलातल तोड़ता जा,
कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;
नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर ?
वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।

[6]

वहाँ क्या है कि फव्वारे जहाँ से छूटते हैं,
जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं ?
बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,
उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है ?

[7]

हृदय-जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले,
रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।
सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,
गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।