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"दुपहरिया / केदारनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर
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::धूसर धूप हुई मन पर ज्यों- | ::धूसर धूप हुई मन पर ज्यों- | ||
::सुधियों की चादर अनबीनी, | ::सुधियों की चादर अनबीनी, | ||
− | दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की | + | दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की । |
− | ::साँस रोक कर खड़े हो | + | ::साँस रोक कर खड़े हो गए |
::लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन, | ::लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन, | ||
::चिलबिल की नंगी बाँहों में | ::चिलबिल की नंगी बाँहों में | ||
::भरने लगा एक खोयापन, | ::भरने लगा एक खोयापन, | ||
− | बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की | + | बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की । |
::थक कर ठहर गई दुपहरिया, | ::थक कर ठहर गई दुपहरिया, | ||
::रुक कर सहम गई चौबाई, | ::रुक कर सहम गई चौबाई, | ||
::आँखों के इस वीराने में- | ::आँखों के इस वीराने में- | ||
::और चमकने लगी रुखाई, | ::और चमकने लगी रुखाई, | ||
− | प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की | + | प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की । |
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19:31, 12 सितम्बर 2010 का अवतरण
झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-
सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।
साँस रोक कर खड़े हो गए
लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाँहों में
भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।
थक कर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आँखों के इस वीराने में-
और चमकने लगी रुखाई,
प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।