{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=|संग्रह=सतरंगिनी / हरिवंशराय बच्चन 
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
दो नयन जिससे कि फिर मैं
 
विश्व का श्रृंगार देखूँ।
 
स्वप्न की जलती हुई नगरी
 
धुआँ जिसमें गई भर,
 
ज्योति जिनकी जा चुकी है
 
आँसुओं के साथ झर-झर,
 
मैं उन्हीं से किस तरह फिर
 
ज्योति का संसार देखूँ,
 
दो नयन जिससे कि फिर मैं
 
विश्व का श्रृंगार देखूँ।
 
देखते युग-युग रहे जो
 
विश्व का वह रुप अल्पक,
 
जो उपेक्षा, छल घृणा में
 
मग्न था नख से शिखा तक,
 
मैं उन्हीं से किस तरह फिर
 
प्यार का संसार देखूँ,
 
दो नयन जिससे कि फिर मैं
 
विश्व का श्रृंगार देखूँ।
 
संकुचित दृग की परिधि थी
 
बात यह मैं मान लूँगा,
 
विश्व का इससे जुदा जब
 
रुप भी मैं जान लूँगा,
 
दो नयन जिससे कि मैं
 
संसार का विस्तार देखूँ;
 
दो नयन जिससे कि फिर मैं
 
विश्व का श्रृंगार देखूँ।
</poem>