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मुआवजा / राजीव रंजन प्रसाद

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'''मुआवजा''' <br />{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद |संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<br /poem>जो भी अभियान है,<br />एक दूकान है<br />जैसे कोई अधेड़न लिपिस्टिक लपेटे<br />लबों पर खिलाती हो मुर्दा हँसी<br />तुम हँसे वो फँसी।<br />
मैं फरेबों में जीते हुए थक गया<br />शाख में उलटे लटक पक गया<br />जिनके चेहरों में दिखते थे लब्बो-लुआब<br />मुझको दे कर के उल्लू कहते हैं वो<br />सीधा करो जनाब<br />ख़्वाब सारे तो हैं झुनझुने थाम लो<br />ले के भोंपू जरा टीम लो टाम लो<br />बिक सको तो खुशी ख़ुशी से कहो, दाम लो<br />मर सको तो सुकूं सुकूँ से मरो, जाम लो<br />जो करो एक भरम हो जो जीता रहे<br />जीत अपनी ही हो, हाथ गीता रहे<br />
रेत के हों, महल उसकी बुनियाद क्या?<br />पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?<br />जा के नापो फकीरे सड़क दर सड़क<br />मैं छिपा कर के जेबों के पैबंद को<br />यूं यूँ जमीं मे गड़ा, सुनता फरियाद क्या?<br />मैं पहाड़ी नदी से मिला था मगर<br />उसकी मैदान से दोस्ती हो गयी<br />गईमैं किनारे की बालू में टूटा हुआ<br />सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन<br />उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?<br /poem>
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