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11:42, 3 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

पूजा के लिए बिठाया है माँ ने कलसा
वह लीप देती है आँगन का एक कोना
बिठा देती है कलसा
अब उतनी ही धरती साफ़ है
जितना उसने लीपा है

उसने कलसे में धरा है पानी
अछिन्न जल धरा है
अब सात नदियों और पाँच समुद्रों में
उतना ही जल अछिन्न है
जितना उसके कलसे में धरा है

उसने धरा है कलसे पर आम का पल्लव
वह बचाना चाहती है पेड़
पत्तों-वृक्षों की हरियाली
अब वह हरियाली कलसे पर सिमट आई है!

आम के पल्लव में डालती है मिट्टी का दिया
धर देती है चौमुख दीप
चारों ओर जीवन चारों ओर प्रकाश
अब इस दिए को बचाकर रखना
कितना ज़रूरी है
माँ ने आज भी ओरिया लिया है
कलसा
अब केवल माँ ही ओरिया सकती है
पूजा का कलसा।