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मन्द-मन्द पवन तुम्हारा आलाप है;
सत्य है यह सब कथा,
अति स्थूल--अति स्थूल वाह्य यह विकास है
केश जैसे शिर पर।
 
योजनों तक फैला हुआ
हिम से अच्छादित
मेरु-तट पर है महागिरि,
अग्रभेदी बहु श्रृंग
अभ्रहीन नभ में उठे,
दृष्टि झुलसाती हुई हिम की शिलाएँ वे,
दिद्युत-विकास से है शतगुण प्रखर ज्योति;
उत्तर अयन में उस
एकीभूत कर की सहस्र ज्योति-रेखाएं
कोटि-वज्र-सम-खर-कर-धार जब ढालती हैं,
एक एक श्रृंग पर
मूर्च्छित हुए-से भुवन-भास्कर हैं दीखते,
गलता है हिम-श्रृंग
टपकता है गुहा में,
घोर नाद करता हुआ
टूट पड़ता है गिरि,
स्वप्न-सम जल-बिम्ब जल में मिल जाता है।
मन की सब वृत्तियाँ एक ही हो जातीं जब,
फैलता है कोटि-सूर्य-निन्दित सत-चित-प्रकाश,
गल जाते भानु, शशधर और तारादल,--
विश्व-व्योममण्डल-चंदातल-पाताल भी,
ब्रह्माण्ड गोपद-समान जान पडता है।
दूर जाता है जब मन वाह्यभूमि के,
होता है शान्त धातु,
निश्चल होता है सत्य;
तन्त्रियाँ हृदय की तब ढीली पड़ जाती हैं,
खुल जाते बन्धन समूह, जाते माया-मोह,
गूँजता तुम्हारा अनाहत-नाद जो वहाँ,
सुनता है दास यह भक्तिपूर्वक नतमस्तक,
तत्पर सदाही वह
पूर्ण करने को जो कुछ भी हो तुम्हारा कार्य।
 
"मैं ही तब विद्यमान;
प्रलय के समय में जब
ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता-लय
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