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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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:जाने किस छल-पीड़ा से :व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन, :ज्यों बरस-बरस पड़ने को :हों उमड़-उमड़ उठते घन !  
अधरों पर मधुर अधर धर,
कहता मदु मृदु स्वर में जीवन--
बस एक मधुर इच्छा पर
अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन ! :पुलकों से लद जाता तन, :मुँद जाते मद से लोचन ;:तत्क्षण सचेत करता मन-- :ना, मुझे इष्ट है साधन !इच्छा है जग का जीवन ,
पर साधन आत्मा का धन;
जीवन की इच्छा है छल ,आत्मा इच्छा का जीवन जीवन ! जीवन।  :फिरतीं नीरव नयनों में :छाया-छबियाँ मन-मोहन ,:फिर-फिर विलीन होने को :ज्यों घिर-घिर उठते हों घन घन।
ये आधी, अति इच्छाएँ
साधन भी में बाधा -बंधन; साधन भी इच्छा ही है ,सम-इच्छा ही रे साधन ! साधन।  :रह-रह मिथ्या-पीड़ा से :दुखता-दुखता मेरा मन , :मिथ्या ही बतला देती :मिथ्या का रे मिथ्यापन !
(फरवरी,1932)रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
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