भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"स्वप्न पट / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
स्वप्न पट !
 
 
ग्राम नहीं, वे ग्राम आज   
 
ग्राम नहीं, वे ग्राम आज   
औ’ नगर न नगर जनाऽकर,   
+
औ’ नगर न नगर जनाकर,   
 
मानव कर से निखिल प्रकृति जग   
 
मानव कर से निखिल प्रकृति जग   
संस्कृत सार्थक, सुंदर !    
+
संस्कृत, सार्थक, सुंदर।    
  
 
देश राष्ट्र वे नहीं,   
 
देश राष्ट्र वे नहीं,   
जीर्ण जग पतझर आस समापन,   
+
जीर्ण जग पतझर त्रास समापन,   
 
नील गगन है: हरित धरा:  
 
नील गगन है: हरित धरा:  
नव युग: नव मानव जीवन ! 
+
नव युग: नव मानव जीवन।
  
 
आज मिट गए दैन्य दुःख,   
 
आज मिट गए दैन्य दुःख,   
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
+
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
 
भावी स्वप्नों के पट पर   
 
भावी स्वप्नों के पट पर   
युग जीवन करता नर्तन ! 
+
युग जीवन करता नर्तन।
  
 
डूब गए सब तर्क वाद,  
 
डूब गए सब तर्क वाद,  
सब देशों राष्ट्रों के रण;
+
सब देशों राष्ट्रों के रण,
 
डूब गया रव घोर क्रांति का,   
 
डूब गया रव घोर क्रांति का,   
शांत विश्व संघर्षण !  
+
शांत विश्व संघर्षण।  
  
 
जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की   
 
जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की   
 
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर  
 
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर  
 
युग युग के बंदीगृह से  
 
युग युग के बंदीगृह से  
मानवता निकली बाहर ! 
+
मानवता निकली बाहर।
  
 
नाच रहे रवि शशि,   
 
नाच रहे रवि शशि,   
दिगंत में-नाच रहे ग्रह उडुगण  
+
दिगंत में,-नाच रहे ग्रह उडुगण,
 
नाच रहा भूगोल,   
 
नाच रहा भूगोल,   
नाचते नर नारी हर्षित मन ! 
+
नाचते नर नारी हर्षित मन।
  
 
फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित   
 
फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित   
 
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल   
 
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल   
 
अयुत करों से लुटा रही   
 
अयुत करों से लुटा रही   
जन हित, जन बल, जन मंगल !   
+
जन हित, जन बल, जन मंगल!   
  
ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,   
+
ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,--  
 
मुक्त दिशा औ’ क्षण से  
 
मुक्त दिशा औ’ क्षण से  
 
जीवन की क्षुद्रता निखिल   
 
जीवन की क्षुद्रता निखिल   
मिट गई मनुज जीवन से !
+
मिट गई मनुज जीवन से।
 
</poem>
 
</poem>

20:19, 26 अप्रैल 2010 का अवतरण

ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत, सार्थक, सुंदर।

देश राष्ट्र वे नहीं,
जीर्ण जग पतझर त्रास समापन,
नील गगन है: हरित धरा:
नव युग: नव मानव जीवन।

आज मिट गए दैन्य दुःख,
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
भावी स्वप्नों के पट पर
युग जीवन करता नर्तन।

डूब गए सब तर्क वाद,
सब देशों राष्ट्रों के रण,
डूब गया रव घोर क्रांति का,
शांत विश्व संघर्षण।

जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर
युग युग के बंदीगृह से
मानवता निकली बाहर।

नाच रहे रवि शशि,
दिगंत में,-नाच रहे ग्रह उडुगण,
नाच रहा भूगोल,
नाचते नर नारी हर्षित मन।

फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल
अयुत करों से लुटा रही
जन हित, जन बल, जन मंगल!

ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,--
मुक्त दिशा औ’ क्षण से
जीवन की क्षुद्रता निखिल
मिट गई मनुज जीवन से।