भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सिंघवा चमार का बेटा / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: सिंघवा चमार का बेटा - फकीरा, एक-आध साल ही स्कूल जा पाया कमाल का ढोल…)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=रवीन्द्र दास
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
सिंघवा चमार का बेटा - फकीरा,  
 
सिंघवा चमार का बेटा - फकीरा,  
 
 
एक-आध साल ही स्कूल जा पाया  
 
एक-आध साल ही स्कूल जा पाया  
 
 
कमाल का ढोलक बजाता।  
 
कमाल का ढोलक बजाता।  
 
 
सोलह-सत्रह के होने के साथ ही आने लगा था -  
 
सोलह-सत्रह के होने के साथ ही आने लगा था -  
 
 
बुलावा दूर-दूर से।  
 
बुलावा दूर-दूर से।  
  
लौटा करता कमाकर कई कई सौ ,  
+
लौटा करता कमाकर कई-कई सौ ,  
 
+
 
लेकिन न देता गरीब बाप को ,  
 
लेकिन न देता गरीब बाप को ,  
 
 
खरीद लाता बाज़ार से  
 
खरीद लाता बाज़ार से  
 
 
बिजली की तार और तरह-तरह के बल्ब .....  
 
बिजली की तार और तरह-तरह के बल्ब .....  
 
+
एक ही झोपड़े में  
एक ही झोपडे में  
+
 
+
 
बिजली के कई बल्ब लगाता,  
 
बिजली के कई बल्ब लगाता,  
 
 
और जल जाने पर ,  
 
और जल जाने पर ,  
 
 
न जाने किस हसरत भरी निगाहों से  
 
न जाने किस हसरत भरी निगाहों से  
 
 
निहारता घंटो-घंटे ,  
 
निहारता घंटो-घंटे ,  
  
अपने घर की दमकती हुई रौशनी को।  
+
अपने घर की दमकती हुई रोशनी को।  
 
+
 
+
 
+
 
गाँव में ही नहीं ,  
 
गाँव में ही नहीं ,  
 
 
पूरे इलाके में प्रसिद्ध था -  
 
पूरे इलाके में प्रसिद्ध था -  
 
 
फकीरा के ढोलक और बिजली का मिथक  
 
फकीरा के ढोलक और बिजली का मिथक  
 
 
और प्रसिद्ध था -  
 
और प्रसिद्ध था -  
 
+
उसका गाढ़ा काला रंग  
उसका गाढा काला रंग  
+
 
+
 
और लकदक सफ़ेद  
 
और लकदक सफ़ेद  
 
 
बनियान और घुटने के ऊपर की धोती  
 
बनियान और घुटने के ऊपर की धोती  
 
 
अक्सर फटा हुआ , लेकिन साफ सफ़ेद।  
 
अक्सर फटा हुआ , लेकिन साफ सफ़ेद।  
 
 
गाँव में एक या दो बार होने वाले नाटकों में बसते थे उसके प्राण  
 
गाँव में एक या दो बार होने वाले नाटकों में बसते थे उसके प्राण  
 
 
कोई प्रलोभन ,  
 
कोई प्रलोभन ,  
 
 
उस महीने नहीं भेज पाता था  
 
उस महीने नहीं भेज पाता था  
 
 
बाहर उसे ।  
 
बाहर उसे ।  
 
+
तो भी, नाटक मण्डली से दूर  
तो भी , नाटक मण्डली से दूर  
+
 
+
 
घर में बैठा ,  
 
घर में बैठा ,  
 
 
इतनी आकांक्षा कि कोई बुलाने आए -उसके घर।  
 
इतनी आकांक्षा कि कोई बुलाने आए -उसके घर।  
 
 
कहता था हर बार ,  
 
कहता था हर बार ,  
 
 
कि आने ही वाला था ।  
 
कि आने ही वाला था ।  
 
 
 
 
यही है हमारा फकीरा ,  
 
यही है हमारा फकीरा ,  
 
+
माँ - बाप उसके निकम्मेपन से  
माँ - बाप उसके निकम्मेपण से  
+
 
+
 
दुखी थे जरूर ,  
 
दुखी थे जरूर ,  
 
 
फिर भी ,  
 
फिर भी ,  
 
 
फकीरा की मिथकीय प्रसिद्धि से  
 
फकीरा की मिथकीय प्रसिद्धि से  
 
 
उतनी ही चमकती थी आँखे  
 
उतनी ही चमकती थी आँखे  
 
 
उनकी भी  
 
उनकी भी  
 
 
भले ही ,  
 
भले ही ,  
 
 
घर की रोटी जुटाने में वह मदद नहीं करता था !
 
घर की रोटी जुटाने में वह मदद नहीं करता था !
 +
</poem>

18:59, 14 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

सिंघवा चमार का बेटा - फकीरा,
एक-आध साल ही स्कूल जा पाया
कमाल का ढोलक बजाता।
सोलह-सत्रह के होने के साथ ही आने लगा था -
बुलावा दूर-दूर से।

लौटा करता कमाकर कई-कई सौ ,
लेकिन न देता गरीब बाप को ,
खरीद लाता बाज़ार से
बिजली की तार और तरह-तरह के बल्ब .....
एक ही झोपड़े में
बिजली के कई बल्ब लगाता,
और जल जाने पर ,
न जाने किस हसरत भरी निगाहों से
निहारता घंटो-घंटे ,

अपने घर की दमकती हुई रोशनी को।
गाँव में ही नहीं ,
पूरे इलाके में प्रसिद्ध था -
फकीरा के ढोलक और बिजली का मिथक
और प्रसिद्ध था -
उसका गाढ़ा काला रंग
और लकदक सफ़ेद
बनियान और घुटने के ऊपर की धोती
अक्सर फटा हुआ , लेकिन साफ सफ़ेद।
गाँव में एक या दो बार होने वाले नाटकों में बसते थे उसके प्राण
कोई प्रलोभन ,
उस महीने नहीं भेज पाता था
बाहर उसे ।
तो भी, नाटक मण्डली से दूर
घर में बैठा ,
इतनी आकांक्षा कि कोई बुलाने आए -उसके घर।
कहता था हर बार ,
कि आने ही वाला था ।
यही है हमारा फकीरा ,
माँ - बाप उसके निकम्मेपन से
दुखी थे जरूर ,
फिर भी ,
फकीरा की मिथकीय प्रसिद्धि से
उतनी ही चमकती थी आँखे
उनकी भी
भले ही ,
घर की रोटी जुटाने में वह मदद नहीं करता था !