"कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर
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ईश जानें, देश का लज्जा विषय<br> | ईश जानें, देश का लज्जा विषय<br> | ||
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नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।<br><br> | नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।<br><br> | ||
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− | मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;<br> | + | ::मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;<br> |
− | चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,<br> | + | ::चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,<br> |
− | फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।<br><br> | + | ::फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।<br><br> |
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,<br> | हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,<br> | ||
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अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!<br><br> | अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!<br><br> | ||
− | लड़ना उसे पड़ता मगर।<br> | + | ::लड़ना उसे पड़ता मगर।<br> |
− | औ' जीतने के बाद भी,<br> | + | ::औ' जीतने के बाद भी,<br> |
− | रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;<br> | + | ::रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;<br> |
− | वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में<br> | + | ::वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में<br> |
− | विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।<br><br> | + | ::विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।<br><br> |
उस सत्य के आघात से<br> | उस सत्य के आघात से<br> | ||
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है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।<br><br> | है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।<br><br> | ||
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− | कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-<br> | + | ::कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-<br> |
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− | लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।<br><br> | + | ::लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।<br><br> |
इस दंश क दुख भूल कर<br> | इस दंश क दुख भूल कर<br> | ||
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विजय पाकर बहाता अश्रु है।<br><br> | विजय पाकर बहाता अश्रु है।<br><br> | ||
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− | नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,<br> | + | ::नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,<br> |
− | पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का<br> | + | ::पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का<br> |
− | वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था।<br><br> | + | ::वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था।<br><br> |
और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,<br> | और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,<br> | ||
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केश जो तेरह बरस से थे खुले।<br><br> | केश जो तेरह बरस से थे खुले।<br><br> | ||
− | और जब पविकाय पाण्डव भीम ने<br> | + | ::और जब पविकाय पाण्डव भीम ने<br> |
− | द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर<br> | + | ::द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर<br> |
− | हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो<br> | + | ::हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो<br> |
− | पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी।<br><br> | + | ::पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी।<br><br> |
कौरवों का श्राद्ध करने के लिए<br> | कौरवों का श्राद्ध करने के लिए<br> | ||
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शेष जब था रह गया कोई नहीं<br> | शेष जब था रह गया कोई नहीं<br> | ||
एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।<br><br> | एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।<br><br> | ||
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[[कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 2|अगला भाग >>]] | [[कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 2|अगला भाग >>]] |
19:59, 21 अगस्त 2008 का अवतरण
वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
- और तब सम्मान से जाते गिने
- नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
- है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
- देश की इज्जत बचाने के लिए
- या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।
- और तब सम्मान से जाते गिने
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
- विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
- मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
- चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
- फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
- विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
- लड़ना उसे पड़ता मगर।
- औ' जीतने के बाद भी,
- रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;
- वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में
- विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।
- लड़ना उसे पड़ता मगर।
उस सत्य के आघात से
हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,
सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।
वह तिलमिला उठता, मगर,
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।
- सहसा हृदय को तोड़कर
- कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-
- 'नर का बहाया रक्त, हे भगवान! मैंने क्या किया
- लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।
- सहसा हृदय को तोड़कर
इस दंश क दुख भूल कर
होता समर-आरूढ फिर;
फिर मारता, मरता,
विजय पाकर बहाता अश्रु है।
- यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में
- नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,
- पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का
- वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था।
- यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में
और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,
मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की
दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,
रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,
केश जो तेरह बरस से थे खुले।
- और जब पविकाय पाण्डव भीम ने
- द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर
- हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो
- पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी।
- और जब पविकाय पाण्डव भीम ने
कौरवों का श्राद्ध करने के लिए
या कि रोने को चिता के सामने,
शेष जब था रह गया कोई नहीं
एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।