भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सदस्य वार्ता:Gopal Baghel 'Madhu'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
छो (पृष्ठ से सम्पूर्ण विषयवस्तु हटा रहा है)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
<poem>
 
  
 
 
== '''मधु मन विहग ( ब्रज )''' ==
 
 
 
( मधुगीति सं. ४२९, रचना दि. १७ जुलाई २००९ )
 
 
'मधु' मन विहग प्रभु व्योम महिं, धावत उड़त उतरत चढत;
 
थकि जातु कब, अकुलातु  कब, हँसि जातु कब, सुधि करत कब.
 
 
जानत न मैं, ताड़त न मैं, तरजत न मैं, सुलझत न मैं;
 
सुर पातु कब, सुख आतु कब, जानत न पाबत प्रात कब.
 
 
कबहू चहकि, कबहू दहकि, कबहू लुढकि, कब प्रस्फुरत;
 
मैं सोचि न पावतु बहुत, विधि कि करनि में रत रहत.
 
 
ना तृप्त हूँ या जगत में, ना सुप्त हूँ जागरण में;
 
ना लुप्त मैं हो पारहा, ना लिप्त अति हो पारहा.
 
 
लावण्य मेरी देह में, सब यन्त्र मेरी देह में;
 
मैं तन्त्र  तेरा बन उड़त, मैं मन्त्र बन तव जग फिरत.
 
 
 
 
== '''ए सखि आये जग मन भावन  ( ब्रज )''' ==
 
 
 
( मधुगीति सं. ४३४, रचना दि. १७ जुलाई २००९ )
 
 
ए सखि आये जग मन भावन, भाव तरावन, भक्ति जगावन;
 
प्रीति लगावन, भीति भगावन, योग सिखावन, रीति बतावन.
 
 
तुम सखि नाचो, गाओ ध्याओ, सत्संगति की बेलि बढ़ाओ;
 
उपवासों में वास कराओ, कान्हा के उर को फुरकाओ.
 
 
मैं भावुक अति, प्रेम विरल रति, चाहत जावति उर अन्तर अति;
 
संतन की गति, योगिन की मति, मोहि नचावति, मन थिरकावति.
 
 
सारंग नाचतु मोहि बताबतु, मैं माया विच समझि ना पावति;
 
चातक चाकतु मोर पखा सर, पीताम्बर लखि अम्वर सोहत.
 
 
तू  आनन्द भरी क्यों गावति, ठाड़ी रहति पलक ना झाँपति;
 
क्या देखी तू भी 'मधु'  भावन, क्या रीझी तू भी लखि मोहन.
 
 
 
 
== '''मैं दीप जलाता हूँ उर में''' ==
 
 
( मधु गीति सं. ५६७, रचना दि. १६ अक्टूवर, २००९, दीपावली की पूर्व संध्या) 
 
 
मैं दीप जलाता हूँ उर में, मैं राग जगाता हूँ सुर में;
 
तुम शाश्वत दीप जलादो ना, तुम निर्झर सुर में गा दो ना.
 
 
मेरी दीवाली तुम में है, मेरे गोवर्धन तुम ही हो;
 
मेरी लक्ष्मी पूजा तुम हो, मेरे गणेश तुम ही तो हो. 
 
 
 
तुम अभिनव नट नागर प्रभु हो, तुम नित्य सनातन चेतन हो;
 
तुम ओजस्वी आनन्द अनंत, तुम तेजस्वी त्रैलोक्य प्रवृत.
 
 
मैं तुम्हरा ही तो उर दीपक, तुम ही तो मेरे सुर प्रेरक;
 
तव कृपा कणों की मैं ज्योति, तुम मम जीवन की चिर ज्योति.
 
 
तुमरे दीपक हैं सब उर में, तुमरे ही सुर सबके उर में;
 
मैं गा देता तुमरे सुर में, सब सुन लेते 'मधु' से उर में.
 
 
 
गोपाल बघेल 'मधु'
 
 
टोरंटो, ओंटारियो, कनाडा
 
 
GPBaghel@gmail.com
 
 
www.AnandaAnubhuti.com
 
 
</poem>
 

15:34, 24 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण