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"रसखान के दोहे / रसखान" के अवतरणों में अंतर

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    प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
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प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
    जो जन जानै प्रेम तो,  मरै जगत क्यों रोइ॥<br><br>
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जो जन जानै प्रेम तो,  मरै जगत क्यों रोइ॥<br><br>
    कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
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    अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥<br><br>
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कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
    काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।
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अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥<br><br>
    इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥<br><br>
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    बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
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    सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥<br><br>
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इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥<br><br>
    अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।
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    प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥<br><br>
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बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
    प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
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सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥<br><br>
    जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥<br><br>
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    भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
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अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।
    बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥<br><br>
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प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥<br><br>
    दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान।
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    इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥<br><br>
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प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
    प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
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जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥<br><br>
    या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥<br><br>
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    हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
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भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
    याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥
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बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥<br><br>
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इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥<br><br>
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प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
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या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥<br><br>
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हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
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याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥<br><br>

00:11, 29 नवम्बर 2006 का अवतरण

कवि: रसखान

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प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ। जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥

कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार। अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥

काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य। इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥

बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि। सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥

अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर। प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥

प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान। जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥

भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय। बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥

दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान। इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥

प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल। या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥

हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन। याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥