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<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
 
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको <br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''पूरे हुए पचास वर्ष <br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[अदम गोंडवी]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शलभ श्रीराम सिंह]]</td>
 
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आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
+
'''आज़ादी की पचासवीं सालगिरह पर एक कविता'''
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
+
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
+
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
+
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
+
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
+
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
+
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
+
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
+
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
+
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
+
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
+
  
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
+
नाश्ते के लिए भुनी हुई स्त्री का गोश्त लाया जाए
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
+
हाथ धोने के लिए अगवा किये गए
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
+
किसी बच्चे की खोपड़ी में लाया जाए ठण्डा पानी
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
+
शाल के बदले किसी निर्दोष नागरिक की चमड़ी लाई जाए
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
+
महामहिम परेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
+
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
+
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
+
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
+
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
+
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
+
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
+
  
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
+
भ्रष्ट्राचार  के पचास वर्ष पूरे हुए
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
+
बलात्कार और व्यभिचार के पचास वर्ष
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
+
पूरे हुए पचास वर्ष हत्या और हाहाकार के  
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
+
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
+
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
+
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
+
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
+
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
+
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
+
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
+
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
+
  
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
+
मानवता के सारे प्रतिमान ढहाए गए
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
+
बहाए गए घडियाली आँसूं जार-जार
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
+
चढ़ाए गए आख़िरी ऊँचाई तक प्रार्थनाओं के स्वर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
+
भगवानों के घर जलाए और गिराए गए
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
+
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
+
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
+
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
+
  
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
+
जी भर तबाह की गई दिलों की ख़ूबसूरती
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
+
वादियों और बस्तियों पर तैनात हुए सन्नाटे
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
+
गोलियों से खेले गए मज़हब और जबान के खेल
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
+
मेल बरकरार रखने के लिए हिन्दू-मुस्लिम -जैन-सिख ईसाई का
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
+
नारा लगते हुए 'भाई-भाई' का, पूरे हुए पचास वर्ष
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
+
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
+
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
+
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
+
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
+
  
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
+
सवाल उठाते-उठाते -
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
+
बोलियाँ नंगी हो गई हैं भाषाएँ छिनाल
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
+
मनों की सुन्दरता समाप्त हो गई हैं तनों के विज्ञापनों से
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´
+
फिर भी कुछ लोगों के लिए
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
+
'मचलती और झूमती हुई आ रही है आज़ादी '
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
+
बर्बादी का ऐसा बेशर्म जश्न कब और कहाँ मनाया गया है इतिहास में ?
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
+
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
+
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
+
  
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
+
इस बीच लगातार हलाल हुए हैं भगत सिंहों के सपने
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
+
बिस्मिलों की तमन्नाएँ ,अशफ़ाक‍उल्लाओं के जज्बात
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
+
सुभाषों की ललकारें, गाँधीयों  के सन्देश और जयप्रकाशों की तड़प ,
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
+
हिंसा और हड़प के पैरोकारों का ध्यान नहीं गया उधर
`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
+
कान नहीं गया किसी का दुर्घटना के इतनें कड़े कर्कश नाद पर  
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
+
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
+
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
+
सुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
+
`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
+
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
+
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
+
  
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
+
भविष्य के अन्धेरों से भयभीत -
`मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
+
रोशन उँगलियों की प्रतीक्षा करता रहा देश
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´
+
आज़ादी के पहले की बात और थी, आज़ादी के बाद की और है
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
+
वह गुलामी का दौर था ,यह गुलामों का दौर है
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
+
वनों की हरियाली नष्ट की गई इस बीच
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
+
घोटा गया नदियों का गला
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
+
पहाड़ों  की खाल खींची गई पूरी बेरहमी के साथ
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
+
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे
+
  
´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
+
पशुओं की भूख तक भुनाई जा रही है शान से
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´´
+
ईमान के गले पर पाँव रख कर की जा रही है बेईमानी
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
+
जान और जहान से बड़ा हो गया है पैसा
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
+
काहे की देशभक्ति ,नैतिकता काहे की, न्याय कैसा ?
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
+
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
+
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
+
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
+
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
+
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
+
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
+
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"
+
  
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
+
ज्ञान के मंदिरों में गुंडे तैयार किए जा रहे हैं यहाँ
`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´
+
झकाझक परिधानों में विचर रहे हैं मूँछ मुंडे अपराधी
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
+
पूरा का पूरा मुल्क इनके बाप की जागीर हो जैसे
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
+
 
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
+
चारो ओर बोलबाला है तस्कर संस्कृति का
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
+
रिश्वत-कमीशन-हवाला और घोटाला है चारों ओर
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
+
 
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
+
और इस देश का परधान मन्तरी मजबूर है
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
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मजबूर है हमारा सब से बड़ा और विश्वसनीय सन्तरी
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
+
 
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
+
एक सदा जीवित जन-संसार पर्दे के पीछे सरकाया जा रहा है
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
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दरकाया जा रहा है देश का भूगोल अपनी इच्छा भर
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दराँतियों से दराँतियाँ नहीं ,जातियों से जातियाँ भिड़ाई जा रही हैं
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वर्ण-विद्वेष की लडाइयाँ लडाई जा रही हैं ,वर्ग-संघर्ष  के बदले
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मूर्तियों की आड़ में जबरजोत की जंग जारी है
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एक ख़तरनाक चुप्पी तारी है कश्मीर से कन्याकुमारी तक
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उदार बनाये जाने के चक्कर में नगद से उधार होता जा रहा है देश
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उधार होता जा रहा है विश्वबाज़ार में बदलते हुए ख़ुद को
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जडी-बूटियों तक पर नहीं रह गया उसका अधिकार
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नीम तक को लाकर पटक दिया है बाज़ार की चौखट पर
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यह एक जीवित धिक्कार है हमारे लिए
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पिछले पचास वर्षों में इस देश की अंतरात्मा सो गई है
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गिद्धों और महागिद्धों की भूमि हो गई है इस देश की धरती
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सोने की चिड़िया की जान साँसत में है
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आफ़त में है कविता का एक-एक शब्द
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भ्रष्टाचार -बलात्कार -व्यभिचार -हत्या
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और हाहाकार के पचास वर्ष पूरे हुए
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परेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं
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महामहिम
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रचनाकाल : 14-15 अगस्त 1997 , मध्य रात्रि ,विदिशा
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'''शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।'''</pre>
 
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20:56, 13 दिसम्बर 2009 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: पूरे हुए पचास वर्ष
  रचनाकार: शलभ श्रीराम सिंह
'''आज़ादी की पचासवीं सालगिरह पर एक कविता'''

नाश्ते के लिए भुनी हुई स्त्री का गोश्त लाया जाए 
हाथ धोने के लिए अगवा किये गए 
किसी बच्चे की खोपड़ी में लाया जाए ठण्डा पानी 
शाल के बदले किसी निर्दोष नागरिक की चमड़ी लाई जाए 
महामहिम परेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं 

भ्रष्ट्राचार  के पचास वर्ष पूरे हुए
बलात्कार और व्यभिचार के पचास वर्ष
पूरे हुए पचास वर्ष हत्या और हाहाकार के 

मानवता के सारे प्रतिमान ढहाए गए
बहाए गए घडियाली आँसूं जार-जार
चढ़ाए गए आख़िरी ऊँचाई तक प्रार्थनाओं के स्वर
भगवानों के घर जलाए और गिराए गए 

जी भर तबाह की गई दिलों की ख़ूबसूरती
वादियों और बस्तियों पर तैनात हुए सन्नाटे
गोलियों से खेले गए मज़हब और जबान के खेल
मेल बरकरार रखने के लिए हिन्दू-मुस्लिम -जैन-सिख ईसाई का
नारा लगते हुए 'भाई-भाई' का, पूरे हुए पचास वर्ष 

सवाल उठाते-उठाते -
बोलियाँ नंगी हो गई हैं भाषाएँ छिनाल 
मनों की सुन्दरता समाप्त हो गई हैं तनों के विज्ञापनों से
फिर भी कुछ लोगों के लिए
'मचलती और झूमती हुई आ रही है आज़ादी '
बर्बादी का ऐसा बेशर्म जश्न कब और कहाँ मनाया गया है इतिहास में ?

इस बीच लगातार हलाल हुए हैं भगत सिंहों के सपने
बिस्मिलों की तमन्नाएँ ,अशफ़ाक‍उल्लाओं के जज्बात
सुभाषों की ललकारें, गाँधीयों  के सन्देश और जयप्रकाशों की तड़प ,
हिंसा और हड़प के पैरोकारों का ध्यान नहीं गया उधर
कान नहीं गया किसी का दुर्घटना के इतनें कड़े कर्कश नाद पर 

भविष्य के अन्धेरों से भयभीत -
रोशन उँगलियों की प्रतीक्षा करता रहा देश 
आज़ादी के पहले की बात और थी, आज़ादी के बाद की और है 
वह गुलामी का दौर था ,यह गुलामों का दौर है 
वनों की हरियाली नष्ट की गई इस बीच
घोटा गया नदियों का गला
पहाड़ों  की खाल खींची गई पूरी बेरहमी के साथ

पशुओं की भूख तक भुनाई जा रही है शान से
ईमान के गले पर पाँव रख कर की जा रही है बेईमानी
जान और जहान से बड़ा हो गया है पैसा
काहे की देशभक्ति ,नैतिकता काहे की, न्याय कैसा ?

ज्ञान के मंदिरों में गुंडे तैयार किए जा रहे हैं यहाँ
झकाझक परिधानों में विचर रहे हैं मूँछ मुंडे अपराधी
पूरा का पूरा मुल्क इनके बाप की जागीर हो जैसे 

चारो ओर बोलबाला है तस्कर संस्कृति का
रिश्वत-कमीशन-हवाला और घोटाला है चारों ओर

और इस देश का परधान मन्तरी मजबूर है
मजबूर है हमारा सब से बड़ा और विश्वसनीय सन्तरी

एक सदा जीवित जन-संसार पर्दे के पीछे सरकाया जा रहा है
दरकाया जा रहा है देश का भूगोल अपनी इच्छा भर
दराँतियों से दराँतियाँ नहीं ,जातियों से जातियाँ भिड़ाई जा रही हैं
वर्ण-विद्वेष की लडाइयाँ लडाई जा रही हैं ,वर्ग-संघर्ष  के बदले
मूर्तियों की आड़ में जबरजोत की जंग जारी है
एक ख़तरनाक चुप्पी तारी है कश्मीर से कन्याकुमारी तक 

उदार बनाये जाने के चक्कर में नगद से उधार होता जा रहा है देश
उधार होता जा रहा है विश्वबाज़ार में बदलते हुए ख़ुद को 
जडी-बूटियों तक पर नहीं रह गया उसका अधिकार
नीम तक को लाकर पटक दिया है बाज़ार की चौखट पर
यह एक जीवित धिक्कार है हमारे लिए

पिछले पचास वर्षों में इस देश की अंतरात्मा सो गई है
गिद्धों और महागिद्धों की भूमि हो गई है इस देश की धरती 
सोने की चिड़िया की जान साँसत में है
आफ़त में है कविता का एक-एक शब्द 
भ्रष्टाचार -बलात्कार -व्यभिचार -हत्या
और हाहाकार के पचास वर्ष पूरे हुए
परेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं
महामहिम 


रचनाकाल : 14-15 अगस्त 1997 , मध्य रात्रि ,विदिशा 

'''शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।'''