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"निरंजन धन तुम्हरो दरबार / कबीर" के अवतरणों में अंतर
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− | वेश्या आेढे खासा मखमल, गल मोतिन का हार । | + | धूर धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।।<br /> |
− | पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।। | + | वेश्या आेढे खासा मखमल, गल मोतिन का हार ।<br /> |
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19:09, 13 दिसम्बर 2009 का अवतरण
कबीर
निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।
जहां न तनिक न्याय विचार ।।
रंगमहल में बसें मसखरे, पास तेरे सरदार ।
धूर धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।।
वेश्या आेढे खासा मखमल, गल मोतिन का हार ।
पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।।
पाखंडी को जग में आदर, सन्त को कहें लबार ।
अज्ञानी को परं ब्रहम ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।।
सांच कहे जग मारन धावे, झूठन को इतबार ।
कहत कबीर फकीर पुकारी, जग उल्टा व्यवहार ।।