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"युग और तुम / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर

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::अमर शान्ति ने अमर
 
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झोपड़ियों का रुदन बदल देता तू मुसकाहट में,
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करती है श्रृंगार क्रान्ति तेरी इस उलट-पुलट में।
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::है कपास-सा परम-मुक्ति का
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::तेरा ताना-बाना।
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अरे गरीब-निवाज, दलित जी उठे सहारा पाया,
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उनकी आँखों से गंगा का सोता बह कर आया,
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तू उनमें चल पड़ा राष्ट्र का गौरव पर्व-मनाकर
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उन आँखों में पैठ गया तू अपनी कुटी बनाकर।
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::तुझे मनाने कोटि-कोटि
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::कंठों ने क्या-क्या गाया
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::जो तुझको पा सका--
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::गरीबों के जी में ही पाया।
  
  
 
'''रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४
 
'''रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४
 
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20:20, 17 दिसम्बर 2009 का अवतरण

युग तुम में, तुम युग में कैसे झाँक रहे हो बोलो?
उथल-पुथल तब हो कि समय में जब तुम जीवन घोलो।
तुम कहते हो बलि से पहले अपना हृदय टटोलो,
युग कहता है क्रान्ति-प्राण! पहिले बन्धन तो खोलो।
तेरी अँगुली हिली, हिल पड़ा
भावोन्मत्त जमाना
अमर शान्ति ने अमर
क्रान्ति अवतार तुझे पहचाना।
तू कपास के तार-तार में अपनापन जब बोता,
राष्ट्र-हृदय के तार-तार में पर वह प्रतिबिम्बित होता,
झोपड़ियों का रुदन बदल देता तू मुसकाहट में,
करती है श्रृंगार क्रान्ति तेरी इस उलट-पुलट में।
उस-सा उज्ज्वल, उस-सा
गुणमय, लाज बचाने वाला
है कपास-सा परम-मुक्ति का
तेरा ताना-बाना।
अरे गरीब-निवाज, दलित जी उठे सहारा पाया,
उनकी आँखों से गंगा का सोता बह कर आया,
तू उनमें चल पड़ा राष्ट्र का गौरव पर्व-मनाकर
उन आँखों में पैठ गया तू अपनी कुटी बनाकर।
तुझे मनाने कोटि-कोटि
कंठों ने क्या-क्या गाया
जो तुझको पा सका--
गरीबों के जी में ही पाया।


रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४