भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मानव / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 34: पंक्ति 34:
 
हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
 
हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
 
संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!
 
संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!
 +
::मानव का मानव पर प्रत्यय,
 +
::परिचय, मानवता का विकास,
 +
::विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,
 +
::सब एक, एक सब में प्रकाश!
 +
प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,
 +
उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,
 +
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में
 +
यदि बने रह सको तुम मानव!
  
 
'''रचनाकाल: अप्रैल’१९३५'''
 
'''रचनाकाल: अप्रैल’१९३५'''
 
</poem>
 
</poem>

20:52, 22 दिसम्बर 2009 का अवतरण

सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,
मानव! तुम सबसे सुन्दरतम,
निर्मित सबकी तिल-सुषमा से
तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!
यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन,
मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग,
न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,
छाया-प्रकाश के रूप-रंग!
धावित कृश नील शिराओं में
मदिरा से मादक रुधिर-धार,
आँखें हैं दो लावण्य-लोक,
स्वर में निसर्ग-संगीत-सार!
पृथु उर, उरोज, ज्यों सर, सरोज,
दृढ़ बाहु प्रलम्ब प्रेम-बन्धन,
पीनोरु स्कन्ध जीवन-तरु के,
कर, पद, अंगुलि, नख-शिख शोभन!
यौवन की मांसल, स्वस्थ गंध,
नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग!
अह्लाद अखिल, सौन्दर्य अखिल,
आः प्रथम-प्रेम का मधुर स्वर्ग!
आशाभिलाष, उच्चाकांक्षा,
उद्यम अजस्र, विघ्नों पर जय,
विश्वास, असद् सद् का विवेक,
दृढ़ श्रद्धा, सत्य-प्रेम अक्षय!
मानसी भूतियाँ ये अमन्द,
सहृदयता, त्याद, सहानुभूति,--
हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!
मानव का मानव पर प्रत्यय,
परिचय, मानवता का विकास,
विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,
सब एक, एक सब में प्रकाश!
प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,
उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में
यदि बने रह सको तुम मानव!

रचनाकाल: अप्रैल’१९३५