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"वटवृक्ष मत बनो / रमा द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर

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जीवन तो नहीं छीनेगा।<br><br>
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मुक्त होना चाहती है।
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22:07, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

हे मानव !
तुम वटवृक्ष मत बनो
नई पौध को भी उगने दो
माना कि तुम महान हो
सुदृढ़ शक्तिमान हो,
इसलिए जमकर डटे हो,
नहीं फटकने देते किसी को,
इसलिए सदियों तक खड़े हो।

पूरी जीवन-ऊर्जा अगर तुम ही ले लोगे,
तो आस-पास के पौधों का क्या होगा?
मर जायेंगे वे असमय में ही,
वह भी तुम्हारे कारण
क्योंकि तुम्हारी छाया में
कोई पौधा पनप नहीं सकता।

तुम्हारी महानता इसमें नहीं
कि तुम किसी को पनपने न दो
तुम अगर छाया न भी दो
तो कोई अन्य पेड़ छाया देगा
किन्तु तुम्हारी तरह
जीवन तो नहीं छीनेगा।

अच्छी तरह सोच लो
अन्य पेड़ हैं इसलिए
तुम्हारा अस्तित्व महान है।
लघुता न हो तो गुरुता का महत्व क्या?
रात न हो तो दिन का अस्तित्व क्या?
सबलता अगर किसी के काम न आए?
तो वह धरती पर बोझ बन जाती है
और धरती भी उसके बोझ से
मुक्त होना चाहती है।