भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एकाकी दोनों (कविता) / स्नेहमयी चौधरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो (एकाकी दोनों. / स्नेहमयी चौधरी का नाम बदलकर एकाकी दोनों (कविता) / स्नेहमयी चौधरी कर दिया गया है)
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=एकाकी दोनों / स्नेहमयी चौधरी
 
|संग्रह=एकाकी दोनों / स्नेहमयी चौधरी
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
चांदनी का एक टुकड़ा
 
चांदनी का एक टुकड़ा
 
 
कल रात जाने कब,
 
कल रात जाने कब,
 
 
जाने कैसे, आ बैठा
 
जाने कैसे, आ बैठा
 
 
खिड़की के पास वाली मेज़ पर सहसा।  
 
खिड़की के पास वाली मेज़ पर सहसा।  
 
  
 
उस अंधेरे में, अकेले में
 
उस अंधेरे में, अकेले में
 
 
मुझे पास पाकर मौन काँपा
 
मुझे पास पाकर मौन काँपा
 
 
थिर हुआ फिर;
 
थिर हुआ फिर;
 
 
मैंने दोनों हाथों पर
 
मैंने दोनों हाथों पर
 
 
टेक दिया माथा।  
 
टेक दिया माथा।  
 
  
 
अब तक
 
अब तक
 
 
सर पटकने वाली
 
सर पटकने वाली
 
 
ऐंठन की व्याकुलता
 
ऐंठन की व्याकुलता
 
 
बिखर कर चेहरों को  
 
बिखर कर चेहरों को  
 
 
कर चुकी थी विकृत।
 
कर चुकी थी विकृत।
 
 
धीरे-धीरे सरक कर
 
धीरे-धीरे सरक कर
 
 
उस प्रकाश-पुंज ने आगे बढ़  
 
उस प्रकाश-पुंज ने आगे बढ़  
 
 
मुझको पूरा-का-पूरा छा लिया।  
 
मुझको पूरा-का-पूरा छा लिया।  
 
  
 
एकाकी दोनों ने जिस दर्द की पीड़ा सही,
 
एकाकी दोनों ने जिस दर्द की पीड़ा सही,
 
 
उससे गलित, द्रवित हो
 
उससे गलित, द्रवित हो
 
 
दोनों हो चुके थे एक।
 
दोनों हो चुके थे एक।
 +
</poem>

16:06, 27 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

चांदनी का एक टुकड़ा
कल रात जाने कब,
जाने कैसे, आ बैठा
खिड़की के पास वाली मेज़ पर सहसा।

उस अंधेरे में, अकेले में
मुझे पास पाकर मौन काँपा
थिर हुआ फिर;
मैंने दोनों हाथों पर
टेक दिया माथा।

अब तक
सर पटकने वाली
ऐंठन की व्याकुलता
बिखर कर चेहरों को
कर चुकी थी विकृत।
धीरे-धीरे सरक कर
उस प्रकाश-पुंज ने आगे बढ़
मुझको पूरा-का-पूरा छा लिया।

एकाकी दोनों ने जिस दर्द की पीड़ा सही,
उससे गलित, द्रवित हो
दोनों हो चुके थे एक।