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:बलि तुम्हारी एक बाँकी दृष्टि पर,
:मर रही है, जी रही है सृष्टि भर!
भूमि के कोटर, गुहा, गिरि, गर्त्त भी,
शून्यता नभ की, सलिल-आवर्त्त भी,
प्रेयसी, किसके सहज-संसर्ग से,
दीखते हैं प्राणियों को स्वर्ग-से?
जन्म-भूमि-ममत्व कृपया छोड़ कर,
चारु-चिन्तामणि-कला से होड़ कर,
कल्पवल्ली-सी तुम्हीं चलती हुई,
बाँटती हो दिव्य-फल फलती हुई!"
"खोजती हैं किन्तु आश्रय मात्र हम,
चाहती हैं एक तुम-सा पात्र हम,
आन्तरिक सुख-दुःख हम जिसमें धरें,
और निज भव-भार यों हलका करें।
तदपि तुम--यह कीर क्या कहने चला?
कह अरे, क्या चाहिए तुझको भला?"
"जनकपुर की राज-कुंज-विहारिका,
एक सुकुमारी सलौनी सारिका!"
देख निज शिक्षा सफल लक्ष्मण हँसे;
उर्मिला के नेत्र खंजन-से फँसे।
"तोड़ना होगा धनुष उसके लिए";
"तोड़ डाला है उसे प्रभु ने प्रिये!
:सुतनु, टूटे का भला क्या तोड़ना?
:कीर का है काम दाडिम फोड़ना,--
:होड़ दाँतों की तुम्हारे जो करे,
:जन्म मिथिला या अयोध्या में धरे!"
:ललित ग्रीवा-भंग दिखला कर अहा!
:उर्मिला ने लक्ष कर प्रिय को, कहा--
:"और भी तुमने किया है कुछ कभी,
:या कि सुग्गे ही पढ़ाये हैं अभी?"
:"बस तुम्हें पाकर अभी सीखा यही!"
:बात यह सौमित्रि ने सस्मित कही।
:"देख लूँगी उर्मिला ने भी कहा।
:विविध विध फिर भी विनोदामृत बहा।
:हार जाते पति कभी, पत्नी कभी;
:किन्तु वे होते अधिक हर्षित तभी।
:प्रेमियों का प्रेम गीतातीत है,
:हार में जिसमें परस्पर जीत है!
"कल प्रिये, निज आर्य का अभिषेक है;
सब कहीं आनन्द का अतिरेक है।
 
 
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