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पिता की ओर देखो, धर्म पालो,
अरे, मूर्च्छित हुए फिर वे, सँभालो!"
किया उपचार दोनों ने पिता का,
उन्हें चैतन्य था चढ़ना चिता का।
खड़ी थी केकयी, पर चित्त चल था;--
"कहा जो राम ने सच था कि छल था!"
सँभल कर कुछ किसी विध भूप बोले--
विकल सौमित्रि से इस भाँति बोले--
"कहो फिर वत्स! जो पहले कहा था,
वही गर्जन मुझे सुख दे रहा था।
नहीं हूँ मैं पिता सचमुच तुम्हारा,
(यही है क्या पिता की प्रीति-धारा?)
तदपि सत्पुत्र हो तुम शूर मेरे,
करो सब दुःख लक्ष्मण दूर मेरे।
मुझे बन्दी बनाकर वीरता से,
करो अभिषेक-साधन धीरता से।
स्वयं निःस्वार्थ हो तुम, नीति रक्खो,
न होगा दोष कुछ, कुल-रीति रक्खो।
भरत था आप ही राज्याधिकारी,
हुआ पर राज्य से भी राम भारी।
उसीसे हा! न वंचित यों भरत हो,
भले ही वाम वामा लोभरत हो।
सुनो, हे राम! तुम भी धर्म धारो,
पिता को मृत्यु के मुँह से उबारो।
न मानो आज तुम आदेश मेरा,
प्रबल उससे नहीं क्या क्लेश मेरा?"
भरत की माँ डरी सुन भूप-वाणी,
कहीं वह राम-लक्ष्मण ने प्रमाणी!
पतित क्या उन्नतों के भाव जानें?
उन्हें वे आप ही में क्यों न सानें!
कहा प्रभु ने--"पिता! हा! मोह इतना!
विचारो किन्तु होगा द्रोह कितना?
तुम्हारा पुत्र मैं आज्ञा तुम्हारी--
न मानूँ, तो कहे क्या सृष्टि सारी?
प्रकट होगा कपट ही हाय! इससे,
न माँ के साथ होगा न्याय इससे।
मिटेगी वंश-मर्यादा हमारी,
बनेंगे हम अगौरव-मार्गचारी।
</poem>
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