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"रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 7" के अवतरणों में अंतर

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लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
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&#39;जहर की कीच में ही आ गये जब ,<br>
 
&#39;जहर की कीच में ही आ गये जब ,<br>

01:53, 25 जनवरी 2008 का अवतरण

'जहर की कीच में ही आ गये जब ,
कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब ,
दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में ,
अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में ?''

''सुयोधन को मिले जो फल किये का ,
कुटिल परिणाम द्रोहानल पिये का ,
मगर, पाण्डव जहां अब चल रहे हैं ,
विकट जिस वासना में जल रहे हैं ,''

''अभी पातक बहुत करवायेगी वह ,
उन्हें जानें कहां ले जायेगी वह .
न जानें, वे इसी विष से जलेंगे ,
कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे .''

''सुयोधन पूत या अपवित्र ही था ,
प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था .
किया मैंने वही, सत्कर्म था जो ,
निभाया मित्रता का धर्म था जो .''

''नहीं किञ्चित् मलिन अन्तर्गगन है ,
कनक-सा ही हमारा स्वच्छ मन है ;
अभी भी शुभ्र उर की चेतना है ,
अगर है, तो यही बस, वेदना है .''

''वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों ?
समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों ?
न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूं ,
लिये यह दाह मन में जा रहा हूं .''

''विजय दिलवाइये केशव! स्वजन को ,
शिथिल, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को .
अभय हो बेधता जा अंग अरि का ,
द्विधा क्या, प्राप्त है जब संग हरि का !''

''मही! लै सोंपता हूं आप रथ मैं ,
गगन में खोजता हूं अन्य पथ मैं .
भले ही लील ले इस काठ को तू ,
न पा सकती पुरुष विभ्राट को तू .''

''महानिर्वाण का क्षण आ रहा है, नया आलोक-स्यन्दन आ रहा है ;
तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके, कसे जप-याग से हैं तन्त्र जिसके ;
जुते हैं कीर्त्तियों के वाजि जिसमें, चमकती है किरण की राजि जिसमें ;
हमारा पुण्य जिसमें झूलता है, विभा के पद्म-सा जो फूलता है .''

''रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से ;
हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सद्धर्म से उद्भूत है जो ;
न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको ;
गगन में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है .''

''अहा! आलोक-स्यन्दन आन पहंुचा ,
हमारे पुण्य का क्षण आन पहुंचा .
विभाओ सूर्य की! जय-गान गाओ ,
मिलाओ, तार किरणों के मिलाओ .''

''प्रभा-मण्डल! भरो झंकार, बोलो !
जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो !
तपस्या रोचिभूषित ला रहा हंू ,
चढा मै रश्मि-रथ पर आ रहा हंू .''

गगन में बध्द कर दीपित नयन को ,
किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को ,
लगा शर एक ग्रीवा में संभल के ,
उड़ी ऊपर प्रभा तन से निकल के !

गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर !
तपस्या-धाम तन से भिन्न होकर.
छिटक कर जो उडा आलोक तन से ,
हुआ एकात्म वह मिलकर तपन से !

उठी कौन्तेय की जयकार रण में ,
मचा घनघोर हाहाकार रण में .
सुयोधन बालकों-सा रो रहा था !
खुशी से भीम पागल हो रहा था !

फिरे आकाश से सुरयान सारे ,
नतानन देवता नभ से सिधारे .
छिपे आदित्य होकर आर्त्त घन में ,
उदासी छा गयी सारे भुवन में .