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"अस्मिता / संध्या पेडणेकर" के अवतरणों में अंतर

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अनुभव से अधिक  
 
अनुभव से अधिक  
 
उपदेश है
 
उपदेश है
खुलेपन से ज्यादा
+
खुलेपन से ज़्यादा
 
बनावटीपन है
 
बनावटीपन है
 
एक दिन किसी ने कहा  
 
एक दिन किसी ने कहा  
  
छलछला आयी उसकी आँखें सुन कर  
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छलछला आई उसकी आँखें सुन कर  
  
 
कहनेवाले को लगा  
 
कहनेवाले को लगा  
आसुओं के साथ उसका  
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आँसुओं के साथ उसका  
 
कोरा उपदेश बह गया  
 
कोरा उपदेश बह गया  
 
उसका बनावटीपन झर गया  
 
उसका बनावटीपन झर गया  
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एक घडी थी  
 
एक घडी थी  
 
एक चूल्हा था  
 
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परांत और बेलन था  
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परात और बेलन था  
 
छुरी और दरांती थी  
 
छुरी और दरांती थी  
 
सुई-धागा था
 
सुई-धागा था
 
झाड़ू था
 
झाड़ू था
 
सीले-सिकुड़े कपड़ों का ढेर था  
 
सीले-सिकुड़े कपड़ों का ढेर था  
बाजार की थैली थी  
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बाज़ार की थैली थी  
 
अनाज का डिब्बा था  
 
अनाज का डिब्बा था  
 
नोन-मिर्च के साथ  
 
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कापियां थीं,  पेंसिलें थीं  
 
कापियां थीं,  पेंसिलें थीं  
 
तहाई हुई, साफ़ धुली चद्दरें थीं  
 
तहाई हुई, साफ़ धुली चद्दरें थीं  
प्रेस किये हुए कपड़ों का ढेर था  
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प्रेस किए हुए कपड़ों का ढेर था  
  
 
गिनती पूरी नहीं हुई थी कहने वाले की  
 
गिनती पूरी नहीं हुई थी कहने वाले की  
असलियत उस पर खुल गयी थी  
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असलियत उस पर खुल गई थी  
 
फिर भी  
 
फिर भी  
 
जबान उद्दंडता से  
 
जबान उद्दंडता से  
उसकी पहचान ढूंढ रही थी  
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उसकी पहचान ढूँढ रही थी  
  
 
और अचानक वह कौंधी  
 
और अचानक वह कौंधी  
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उसकी असली मुस्कान चौंधियाती हुई  
 
उसकी असली मुस्कान चौंधियाती हुई  
कहनेवाले के दिल तक उतर आयी
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कहनेवाले के दिल तक उतर आई
 
और वह  
 
और वह  
 
उसकी असलियत को नकार न सका                               
 
उसकी असलियत को नकार न सका                               
 
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20:18, 1 मार्च 2010 के समय का अवतरण

उसकी बातों में
अनुभव से अधिक
उपदेश है
खुलेपन से ज़्यादा
बनावटीपन है
एक दिन किसी ने कहा

छलछला आई उसकी आँखें सुन कर

कहनेवाले को लगा
आँसुओं के साथ उसका
कोरा उपदेश बह गया
उसका बनावटीपन झर गया
लेकिन आश्चर्य!
उसके नीचे वह थी ही नहीं
एक घडी थी
एक चूल्हा था
परात और बेलन था
छुरी और दरांती थी
सुई-धागा था
झाड़ू था
सीले-सिकुड़े कपड़ों का ढेर था
बाज़ार की थैली थी
अनाज का डिब्बा था
नोन-मिर्च के साथ
बच्चों के स्कूल का हिसाब था
कापियां थीं, पेंसिलें थीं
तहाई हुई, साफ़ धुली चद्दरें थीं
प्रेस किए हुए कपड़ों का ढेर था

गिनती पूरी नहीं हुई थी कहने वाले की
असलियत उस पर खुल गई थी
फिर भी
जबान उद्दंडता से
उसकी पहचान ढूँढ रही थी

और अचानक वह कौंधी
उसकी आँखें चकाचक करते हुए

उसकी असली मुस्कान चौंधियाती हुई
कहनेवाले के दिल तक उतर आई
और वह
उसकी असलियत को नकार न सका