भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"साँचा:KKPoemOfTheWeek" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
 
<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
 
<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
 
<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : भूख <br>
+
<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : पड़ताल <br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[मासूम गाज़ियाबादी ]]</td>
+
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[इब्बार रब्बी]]</td>
 
</tr>
 
</tr>
 
</table>
 
</table>
 
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
 
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
भूख इन्सान के रिश्तों को मिटा देती है।
+
सर्वहारा को ढूँढ़ने गया मैं
करके नंगा ये सरे आम नचा देती है।।
+
लक्ष्मीनगर और शकरपुर
 +
नहीं मिला तो भीलों को ढूँढ़ा किया
 +
कोटड़ा में
 +
गुजरात और राजस्थान के सीमांत पर
 +
पठार में भटका
 +
साबरमती की तलहटी
 +
पत्थरों में अटका
 +
लौटकर दिल्ली आया
  
आप इन्सानी जफ़ाओं का गिला करते हैं।
+
नक्सलवादियों की खोज में
रुह भी ज़िस्म को इक रोज़ दग़ा देती है।।
+
भोजपुर गया
 +
इटाढ़ी से धर्मपुरा खोजता फिरा
 +
कहाँ-कहाँ गिरा हरिजन का ख़ून
 +
धब्बे पोंछता रहा
 +
झोपड़ी पे तनी बंदूक
 +
महंत की सुरक्षा देखकर
 +
लौट रहा मैं
 +
दिल्ली को
  
कितनी मज़बूर है वो माँ जो मशक़्क़त करके।
+
बंधकों की तलाश ले गई पूर्णिया
दूध क्या ख़ून भी छाती का सुखा देती है।।
+
धमदहा, रूपसपुर
 +
सुधांशु के गाँव
 +
संथालों-गोंडों के बीच
 +
भूख देखता रहा
 +
भूख सोचता रहा
 +
भूख खाता रहा
 +
दिल्ली आके रुका
  
आप ज़रदार सही साहिब-ए-किरदार सही।
+
रींवा के चंदनवन में
पेट की आग नक़ाबों को हटा देती है।।
+
ज़हर खाते हरिजन आदिवासी देखे
 +
पनासी, झोटिया, मनिका में
 +
लंगड़े सूरज देखे
 +
लंगड़ा हल
 +
लंगड़े बैल
 +
लंगड़ गोहू, लंगड़ चाउर उगाया
 +
लाठियों की बौछार से बचकर
 +
दिल्ली आया
  
भूख दौलत की हो शौहरत की या अय्यारी की।
+
थमी नहीं आग
हद से बढ़ती है तो नज़रों से गिरा देती है।।
+
बुझा नहीं उत्साह
 +
उमड़ा प्यार फिर-फिर
 +
बिलासपुर
 +
रायगढ़
 +
जशपुर
 +
पहाड़ में सोने की नदी में
 +
लुटते कोरबा देखे
 +
छिनते खेत
 +
खिंचती लंगोटी देखी
 +
अंबिकापुर से जो लगाई छलाँग
 +
तो गिरा दिल्ली में
  
अपने बच्चों को खिलौनों से खिलाने वालो!
+
फिर कुलबुलाया
मुफ़लिसी हाथ में औज़ार थमा देती है।।
+
प्यार का कीड़ा
 +
ईंट के भट्ठों में दबे
 +
हाथों को उठाया
 +
आज़ाद किया
 +
आधी रात पटका
 +
बस-अड्डे पर ठंड में
 +
चौपाल में सुना दर्द
 +
और सिसकी
 +
कोटला मैदान से वोट क्लब तक
 +
नारे लगाता चला गया
 +
`50 लाख बंधुआ के रहते
 +
भारत माँ आज़ाद कैसे´
 +
हारा-थका लौटकर
 +
घर को आया
  
भूख बच्चों के तबस्सुम पे असर करती है।
+
रवाँई गया पहाड़ पर चढ़ा
और लड़कपन के निशानों को मिटा देती है।।
+
कच्ची पी बड़कोट पुरोला छाना
 
+
पांडवों से मिला
देख ’मासूम’ मशक़्क़त तो हिना के बदले।
+
बहनों की खरीद देखी
हाथ छालों से क्या ज़ख़्मों से सजा देती है।।
+
हर बार दौड़कर
 +
दिल्ली आया !
 
</pre>
 
</pre>
 
<!----BOX CONTENT ENDS------>
 
<!----BOX CONTENT ENDS------>
 
</div><div class='boxbottom_lk'><div></div></div></div>
 
</div><div class='boxbottom_lk'><div></div></div></div>

20:34, 10 अप्रैल 2010 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक : पड़ताल
  रचनाकार: इब्बार रब्बी
सर्वहारा को ढूँढ़ने गया मैं
लक्ष्मीनगर और शकरपुर
नहीं मिला तो भीलों को ढूँढ़ा किया
कोटड़ा में
गुजरात और राजस्थान के सीमांत पर
पठार में भटका
साबरमती की तलहटी
पत्थरों में अटका
लौटकर दिल्ली आया

नक्सलवादियों की खोज में
भोजपुर गया
इटाढ़ी से धर्मपुरा खोजता फिरा
कहाँ-कहाँ गिरा हरिजन का ख़ून
धब्बे पोंछता रहा
झोपड़ी पे तनी बंदूक
महंत की सुरक्षा देखकर
लौट रहा मैं
दिल्ली को

बंधकों की तलाश ले गई पूर्णिया
धमदहा, रूपसपुर
सुधांशु के गाँव
संथालों-गोंडों के बीच
भूख देखता रहा
भूख सोचता रहा
भूख खाता रहा
दिल्ली आके रुका

रींवा के चंदनवन में
ज़हर खाते हरिजन आदिवासी देखे
पनासी, झोटिया, मनिका में
लंगड़े सूरज देखे
लंगड़ा हल
लंगड़े बैल
लंगड़ गोहू, लंगड़ चाउर उगाया
लाठियों की बौछार से बचकर
दिल्ली आया

थमी नहीं आग
बुझा नहीं उत्साह
उमड़ा प्यार फिर-फिर
बिलासपुर
रायगढ़
जशपुर
पहाड़ में सोने की नदी में
लुटते कोरबा देखे
छिनते खेत
खिंचती लंगोटी देखी
अंबिकापुर से जो लगाई छलाँग
तो गिरा दिल्ली में

फिर कुलबुलाया
प्यार का कीड़ा
ईंट के भट्ठों में दबे
हाथों को उठाया
आज़ाद किया
आधी रात पटका
बस-अड्डे पर ठंड में
चौपाल में सुना दर्द
और सिसकी
कोटला मैदान से वोट क्लब तक
नारे लगाता चला गया
`50 लाख बंधुआ के रहते
भारत माँ आज़ाद कैसे´
हारा-थका लौटकर
घर को आया

रवाँई गया पहाड़ पर चढ़ा
कच्ची पी बड़कोट पुरोला छाना
पांडवों से मिला
बहनों की खरीद देखी
हर बार दौड़कर
दिल्ली आया !