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"डरे सहमे बेजान चेहरे / तेजेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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− | + | कहां से पायें संस्कार | |
− | + | अंग्रेज़ी भला कैसे ढोए | |
− | + | भारतीय संस्कृति का भार! | |
− | + | समस्या खडी है मुँह बाये | |
− | + | यहां रहें या वापिस गांव चले जायें? | |
− | + | तन यहां है, मन वहाँ | |
− | + | त्रिशंकु! अभिशप्त आत्माएँ! | |
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− | + | समय था जब, | |
− | + | लक्ष्मी उपार्जन के कार्यों में | |
− | + | व्यस्त रहे तब! | |
− | + | कहावत पुरानी है | |
− | + | बबूल और आम की | |
− | + | लक्ष्मी और सरस्वती की | |
− | + | सुबह और शाम की | |
− | + | सुविधाओं और संस्कृति की लडाई | |
− | + | सदियों से है चली आई | |
− | + | यदि पार पाना हो इसके, | |
− | + | बुध्दम् शरणम् गच्छामि! | |
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− | बुध्दम् शरणम् गच्छामि!< | + |
09:07, 13 मई 2009 का अवतरण
अपने चारों ओर
निगाह दौड़ाता हूँ,
तो डरे, सहमे, बेजान
चेहरे पाता हूं
डूबे हैं गहरी सोच में
भयभीत मां, परेशान पिता
अपने ही बच्चों में देखते हैं
अपने ही संस्कारों की चिता
जब भाषा को दे दी विदाई
कहां से पायें संस्कार
अंग्रेज़ी भला कैसे ढोए
भारतीय संस्कृति का भार!
समस्या खडी है मुँह बाये
यहां रहें या वापिस गांव चले जायें?
तन यहां है, मन वहाँ
त्रिशंकु! अभिशप्त आत्माएँ!
संस्कारों के बीज बोने का
समय था जब,
लक्ष्मी उपार्जन के कार्यों में
व्यस्त रहे तब!
कहावत पुरानी है
बबूल और आम की
लक्ष्मी और सरस्वती की
सुबह और शाम की
सुविधाओं और संस्कृति की लडाई
सदियों से है चली आई
यदि पार पाना हो इसके,
बुध्दम् शरणम् गच्छामि!