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"लंदन में बरसात / तेजेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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वो भीगी लटों वाली, कमसिन ना दिखाई दे
  
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बारिश का जहां कोई भी होता नहीं मौसम<br>
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पल भर में चुभे सूरज, पल भर में दिखें बादल
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क्या खेल है कुदरत का, ये कैसे नज़ारे हैं
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सब कुछ है मगर फिर भी ना दिल में कोई हलचल
  
मिट्टी है यहां गीली, पानी भी गिरे चुप चुप<br>
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चेहरे ना दिखाई दें, छातों की बनें चादर
ना नाव है काग़ज़ की, छप छप ना सुनाई दे<br>
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अपना ना दिखे कोई, सब लगते हैं बेगाने
वो सौंघी सी मिट्टी की ख़ुशबू भी नहीं आती<br>
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लगता ही नहीं जैसे यह प्यार का मौसम है
वो भीगी लटों वाली, कमसिन ना दिखाई दे<br><br>
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शम्मां हो बुझी गर तो, कैसे जलें परवाने</poem>
 
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इस शहर की बारिश का ना कोई भरोसा है<br>
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क्या खेल है कुदरत का, ये कैसे नज़ारे हैं<br>
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सब कुछ है मगर फिर भी ना दिल में कोई हलचल<br><br>
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अपना ना दिखे कोई, सब लगते हैं बेगाने<br>
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लगता ही नहीं जैसे यह प्यार का मौसम है<br>
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शम्मां हो बुझी गर तो, कैसे जलें परवाने<br><br>
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09:23, 13 मई 2009 का अवतरण

ऐसी जगह पे आके बस गया हूं दोस्तो
बारिश का जहां कोई भी होता नहीं मौसम
पतझड़ हो या सर्दी हो या गर्मी का हो आलम
वर्षा की फुहारें बस, गिरती रहें हरदम

मिट्टी है यहां गीली, पानी भी गिरे चुप चुप
ना नाव है काग़ज़ की, छप छप ना सुनाई दे
वो सौंघी सी मिट्टी की ख़ुशबू भी नहीं आती
वो भीगी लटों वाली, कमसिन ना दिखाई दे

इस शहर की बारिश का ना कोई भरोसा है
पल भर में चुभे सूरज, पल भर में दिखें बादल
क्या खेल है कुदरत का, ये कैसे नज़ारे हैं
सब कुछ है मगर फिर भी ना दिल में कोई हलचल

चेहरे ना दिखाई दें, छातों की बनें चादर
अपना ना दिखे कोई, सब लगते हैं बेगाने
लगता ही नहीं जैसे यह प्यार का मौसम है
शम्मां हो बुझी गर तो, कैसे जलें परवाने