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सुर्रियल ख़्वाब / जयंत परमार

115 bytes added, 14:53, 11 अप्रैल 2010
::उसके स्तन
नीली ब्रा के रेशमी कैन्वस पर रौशन
नाभी की तारीक <ref>अँधेरी</ref> गली में
::सब्ज़ घास पर
चढ़ती ख़्वाहिश की
::च्यूँटी
जुनूँ के नक़्शे पा
::पिस्ताँ <ref>स्तन</ref> तक जाते हुए
फिसल पड़े गहरी खाई में!
पीला सूरज सुखा रहा था
नारियल के ऊँचे पेड़ों पर गीले कपड़े
बर्गे-मिज़गाँ <ref>पलकों के पत्ते</ref> से उतरा
::इक सुर्ख़ सितारा
ग़र्क़ हुआ फिर
उड़े-उड़े-से मेरे ख़्वाब!!
</poem>
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